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१०२ जयोदय-महाकाव्यम्
[.९७-९८ कार्यपात्रमवतायथोचितं वस्तु वास्तुमुखमर्पयन् हितम् ।
येन सम्यगिह मार्गभावना का गतिनिशि हि दीपकं विना ॥ ९७ ॥ कार्यपात्रमिति । गृही यथोचितं वास्तु गृहं मुखं प्रधानं यत्र तादृशं हितं निर्वाहोपयोगि वस्तु अर्पयन् यच्छन् कार्यपात्रं भृत्यमवताद् रक्षेत् । येनेह सम्यङमार्गस्य जीवननिर्वाहस्य भावना सौविध्यं स्यात् । हि यतो निशि रात्रौ दीपकं विना का गतिः स्यात् ॥ ९७ ॥
श्रीत्रिवर्गसहकारिणो जनानात्रिकेष्टिपरिपूर्तितन्मनाः। तान्नयेच्च परितोषयन् धृति कुम्भकृत्युपरते क वाःस्थितिः ॥ ९८ ॥
श्रीत्रिवर्गेति । अत्र भवा आत्रिका येष्टिः सुखसम्पत्तिस्तस्याः परिपूतों तन्मनाः परायणः पुरुषः यदि त्रिवर्गस्य सहकारिणः सहायकान् जनानपि परितोषयन् सन्तोषयन् पति नयेत् । यतः कुम्भकृत्युपरते वारः स्थितिःस्थितिः क्व स्यात्, घटाभाव इति
शेषः ॥१८॥
करे उसी प्रकार समीचीन मार्गको अपनानेवाले मध्यम साधुओं और तटस्थ साधुओंको भी संतर्पित करता रहे। कारण, पानीदार आंखोंवाला राजा श्रीमानों तथा गरीबोंको भी अपनी प्रजाका अङ्गभी मानना है ।। ९६ ॥ ___ अन्वय : ( गृही ) यथोचितं वास्तुमुखं हितं वस्तु अर्पयन् कार्यपात्रम् अवतात्, येन इह मार्गभावना सम्यक् स्यात् । हि निशि दीपकं विना का गतिः ।
अर्थ : गृहस्थका कर्तव्य है कि यथायोग्य मकान आदि उपयोगी वस्तुएं देकर कार्यपात्र यानी नौकर-चाकर आदि की भी संभाल करता रहे, जिससे जीवन-निर्वाहमें सुविधा बनी रहे। कारण, रात्रिमें दीपकके बिना गति ही क्या है। अर्थात् रात्रिमें दीपकके बिना जैसे निर्वाह कठिन होता है, वैसे ही ऐसा न करनेपर गृहस्थ-जीवन भी दूभर बन जाता है ।। ९७ ॥
अन्वय : आत्रिकेष्टिपरिपूर्तितन्मनाः तान् श्रीत्रिवर्गसहकारिणो जनान् च परितोषयन् धृति नयेत् । कुम्भकृति उपरते वाःस्थितिः क्व ?
अर्थ : ऐहिक जीवन सुख-सुविधासे बितानेकी इच्छावाले गृहस्थको चाहिए कि अपने त्रिवर्गके साधनमें सहायता करनेवाले लोगोंको भी संतुष्ट करते हुए उन्हें निराकुल बनाये। अगर कुंभकार न हो तो हमें बरतन कौन देगा और फिर हम अपने पीनेका पानी कहाँसे किसमें लायेंगे ॥९८ ।।
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