SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना उत्तराधिकारी बनाने की तरकीब सोचता है । गान-कला में प्रवीण कुनाल अपने पुत्र को साथ लेकर, गायक के वेष में, पाटलिपुत्र पहुँचता है और सामंत मंडलिकों के यहाँ अपनी संगीत-कला का परिचय देता हुआ अशोक के दरबार पहुँचता है । इस अंध गायक के गान से राजा खूब प्रसन्न होता है और सहसा बोल उठता है 'तुझे क्या दूँ ?' राजा का वचन मुख से निकलते ही यवनिका के भीतर बैठा हुआ गायक कुनाल कहता है "पपुत्तो चंदगुत्तस्स, बिंदुसारस्स नत्तुओ । असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कागिणिं ॥" राजा चौककर पर्दा दूर करवाके कुनाल को गले लगता है, और कागिणि मात्र माँगने का कारण पूछता है, जिसके उत्तर में मंत्री कहते हैं “राजपुत्रों की परिभाषा में काकिणी का अर्थ राज्य' है। कुनाल की माँग का तात्पर्य समझकर राजा उसे अंधदशा में राज्य माँगने का कारण पूछता है। तब कुनाल अशोक को पौत्रजन्म की बधाई सुनाता है । राजा उसी समय कुनाल के पुत्र को अपनी गोद में लेकर उसे उज्जयिनी का शासक और अपना उत्तराधिकारी युवराज बनाता है और उज्जयिनी भेज देता है६२ । ६१. कुनाल अशोक का उत्तराधिकारी था, इसलिये कुनाल के पुत्र संप्रति को उसका उत्तराधिकार मिलना कठिन नहीं था, फिर कुनाल उसे उत्तराधिकार दिलाने के लिये यह तरकीब क्यों सोचता है ? यह शंका यहाँ पर अवश्य हो सकती है और इसका परिहार यों हो सकता है कि, कुनाल के अंधा होने के बाद अशोक ने उज्जयिनी दूसरे राजकुमार को दे दी थी-यह बात कल्पचूर्णि में लिखी है। (परितप्पित्ता उज्जेणी अण्णस्स कुमारस्स दिण्णा ।) इस प्रकार अन्य कुमार को प्रदत्त उज्जयिनी का अधिकार पीछे कुनाल के पुत्र को मिलना जरा कठिन था, इसलिये बुद्धिमान् कुनाल ने तरकीब से राजा को वचनबद्ध करके उज्जयिनी का अधिकार प्राप्त किया । ६२. संप्रति को उज्जयिनी का अधिकार देने के संबंध में जैन लेखकों के दो तरह के लेख मिलते हैं । बृहत्कल्प चूर्णि, कल्पकिरणावली आदि में लिखा है कि जब कुनाल अशोक से मिला और अपने पुत्र संप्रति के लिये राज्य माँगा उसी समय अशोक ने संप्रति को राज्य दे दिया । देखो निम्नलिखित उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy