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________________ ७८ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना युगप्रधानत्व काल-गणना में हम देख आए हैं कि निर्वाण से २९१वें वर्ष में आर्य सुहस्ती का स्वर्गवास हो जाता है, उधर 'राजत्वकाल-गणना' में निर्वाण से २१० वर्ष के बाद मौर्य राज्य का प्रारंभ होता है । पुराण और बौद्ध लेखों के अनुसार चंद्रगुप्त का २४, बिंदुसार का २५ और अशोक का ३६ वर्ष परिमित राजत्वकाल मान लिया जाय तो संप्रति का राज्य २९५ (२१० + २४ + २५ + ३६ = २९५) के पहले नहीं आ सकता ९ । यह गणना उपर्युक्त कथा के साथ जरा असंगत सी मालूम होती है । इस असंगति को मिटाने के लिये हमें संप्रति चरित्र के विशेष अंशों पर दृष्टिपात करना होगा । अशोक अपने बड़े पुत्र कुनाल को युवराज बनाकर उज्जयिनी का शासन देकर वहाँ भेज देता है, कारण- विशेष से कुनाल अंधा हो जाता है। लाचार हो अशोक उसे दूसरा गाँव देकर वहाँ भेजता है और उज्जयिनी का शासन दूसरे कुमार को दे देता है । पीछे से अपने गाँव में रहते हुए कुनाल ५९. आचार्य जिनसुंदर सूरि दीपाली - कल्प में संप्रति का निर्वाण संवत् ३०० में राजा होना बताते हैं । देखो निम्नलिखित श्लोक " दिनतो मम मोक्षस्य, गते वर्षशतत्रये । उज्जयिन्यां महापुर्यां भावी संप्रति भूपतिः ॥ १०७|| " - दीपाली कल्प, पृ० ११ ६०. युवराज कुनाल अंध हो गया था, यह बात जैन और बौद्ध ग्रंथों से जानी जाती है । दोनों मतवाले कुनाल की अपर माता के द्वेष के कारण कुनाल का अंधा होना बताते हैं, पर उसके प्रकार भिन्न भिन्न हैं । I बौद्ध लेखकों ने इस विषय का 'दिव्यावदान' और 'अवदानकल्पलता' में बहुत विस्तार के साथ वर्णन किया है, पर उसका सारांश इतना ही है कि राजकुँवर कुनाल की आँखें बहुत सुंदर थीं । अशोक की तिष्यरक्षिता नामक रानी ने इन सुंदर आँखों पर मोहित होकर कुनाल से अनुचित प्रार्थना की, पर कुनाल बड़ा सुशील था । उसने तिष्यरक्षिता की प्रार्थना का भंग कर दिया, इससे वह कुनाल पर बहुत ही नाराज हुई और अवसर मिलने पर इसका बदला लेने का उसने निश्चय कर लिया । उसके बाद राजा अशोक एक बार बीमार पड़ा और वेद्यों के अनेक उपचार करने पर भी वह अच्छा नहीं हुआ, तब रानी तिष्यरक्षिता ने अपनी कुशल बुद्धि से राजा को नीरोग किया । राजा रानी पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे रात दिन का राज्याधिकार दिया । रानी ने कुनाल का वैर लेने के लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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