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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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हमारे इस विस्तृत विवेचन का तात्पर्य यही है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु और चंद्रगुप्त को समकालीन बतानेवाली आख्यायिकाएँ बिल्कुल निराधार हैं । इन निराधार दंतकथाओं के भरोसे चंद्रगुप्त को भद्रबाहु के समय में खींच लाना और प्रस्तुत गणना-पद्धति को अविश्वसनीय कहना योग्य नहीं है।
आर्य सुहस्ती और राजा संप्रति निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार और पंचकल्प जैसे प्राचीन और प्रामाणिक जैन सूत्रों के भाष्यों और चूणियों में संप्रति के संबंधमें यह कथा दी गई है कि 'राजा अशोक के पौत्र उज्जयिनी के राजा मौर्य संप्रति को जैन आचार्य आर्य सहस्तीजी ने जैन बनाया और जैन उपासक बनकर संप्रति ने जैन धर्म की बहुत ही उन्नति की ।' ।
श्वेतांबर संघ के मान्य विद्यमान आगमों में निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार नामक सूत्रों का बड़ा महत्त्व है । ये तीनों छेदसूत्र हैं और इनके कर्ता भगवान् भद्रबाहु श्रुतकेवली हैं । यद्यपि इनमें से व्यवहार सूत्र की भाषा कुछ अर्वाचीन प्रतीत होती है, तथापि हम इसे अभद्रबाहुकर्तृक नहीं कह सकते । हो सकता है कि पिछले समय में इसमें कुछ संस्कार हुए हों और भाषा और कहीं कहीं भाव भी बदल दिए गए हों, पर इतने ही कारण से इसे अभद्रबाहु कर्तृक कहना योग्य नहीं है । इन तीनों सूत्रों में जो जो साधुओं के आचार-विचार बताए हैं वे एकदम प्राचीन हैं। इनमें जो अपवाद मार्गों का निरूपण है वह अवश्य ही किसी समय-विशेष का सूचक है । जहाँ तक मेरा विचार है, ये तीनों अध्ययन (और कम से कम कल्पाध्ययन तो अवश्य ही) विषम समय की कृति है । इनका आंतर स्वरूप देखने से ये तीन बातें तो स्पष्ट हो जाती हैं कि इन सूत्रों की रचना कलिंग या बंगाल में हुई है । सूत्रकार के समय में कालसंबंधी विषम स्थिति थी और साधुओं का समुदाय अधिक था ।
__ कल्पाध्ययन के प्रारंभ के प्रलम्ब सूत्र और इसके भाष्य से तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि इस सूत्र की रचना दुर्भिक्ष के समय में तोसलि देश (कलिंग के एक प्रांत) में हुई है। इससे यदि हम यह मान लें कि दुर्भिक्ष के पहले भद्रबाहु ने 'निशीथाध्ययन' की रचना की, दुर्भिक्ष के समय में उन्होंने तोसलि देश में रहते हुए 'कल्पाध्ययन' का निर्माण किया, और दुर्भिक्ष के बाद 'बृहत्कल्प' का संकलन किया तो कुछ भी अनुचित नहीं है । कुछ भी हो, पर एक बात तो निश्चित है कि दुर्भिक्ष के समय में श्रुतकेवली भद्रबाहु पूर्व देश में ही विचरते थे ।
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