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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
दोनों पद्धतियाँ निर्वाण और शक संवत्सर का अंतर ६०५ वर्ष प्रतिपादित करती है । इससे भी इनका आपस का मेल स्पष्ट हो जाता है।
परंतु हाँ, कतिपय ऐतिहासिक जैन परंपराएँ ऐसी भी हैं, जिनका प्रथम गणना से ठीक मेल नहीं खाता, और जब तक इन बेमेल परंपराओं से उपस्थित होते हुए विरोध का परिहार न होगा तब तक उक्त गणना की निर्दोषिता का सिद्ध होना कठिन है, और इस प्रकार शंकित गणना के आधार पर की गई निर्वाण संवत्सरगणना का भी निश्शंकित होना असंभव है ।
भद्रबाहु और चंद्रगुप्त सूचित जैन परंपराओं में एक परंपरा स्थविर भद्रबाहु और मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त की समानकालीनता संबंधी है ।
__(१) चंद्रगुप्त के राजत्वकाल में जब बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा उस समय और उसके पीछे भी बहुत दिनों तक भद्रबाहु जीवित रहे ।
(२) चंद्रगुप्त को एक समय १६ अनिष्ट स्वप्न आए । राजा ने स्थविर भद्रबाहु के पास जाकर उनका फल पूछा । इसके उत्तर में स्थविरजी ने दुष्षमाकाल के भावी अनर्थों का वर्णन किया ।
___ (३) चंद्रगुप्त भद्रबाहु से जैन-दीक्षा ग्रहण कर उनके साथ दक्षिण देश की ओर चला गया ।
ऊपर की दंतकथाएँ भद्रबाहु और चंद्रगुप्त की समकालीनता की द्योतक हैं। यदि इन प्रवादों को ठीक मान लिया जाय तो चंद्रगुप्त का सत्तासमय जिन-निर्वाण से १७० वर्ष के अनंतर नहीं हो सकता ।
अब राजत्वकाल-गणना का हिसाब देखिए । वह चंद्रगुप्त के समय का प्रारंभ निर्वाण से २१० (६० + १५० = २१०) वर्ष पीछे बताती है ।
स्पष्ट है, इसलिये वास्तव में यह उल्लेख चौदहपूर्वो का विच्छेद बताने के बहाने भद्रबाहु के स्वर्गगमन के समय की ही सूचना देता है । इस वस्तुस्थिति की प्रतिपादिका गाथा यह है
"चोद्दसपुव्वच्छेदो, वरिससते सत्तरे विणिद्दिट्ठो । साहम्मि थूलभद्दे, अन्ने य इमे भवे भावा ॥७०१॥"
-तित्थोगाली पइन्नय ।
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