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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
इसके बाद आर्यधर्म २४, भद्रगुप्त ३९, श्रीगुप्त १५ और वज्र ३६ वर्ष युगप्रधान पद पर रहे । इस तरह निर्वाण को ५८४ वर्ष हुए ।
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वज्र के बाद आर्यरक्षित १३ और पुष्यमित्र २० वर्ष युगप्रधान रहे । इसी अर्से में वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष बीतने पर शक संवत्सर की उत्पत्ति हुई ।
संगति
अब हमें यह देखना है कि उक्त दोनों जैन गणना-पद्धतियाँ परस्पर संगत हैं या नहीं, तथा अन्य ऐतिहासिक जैन परंपराओं से उनका मेल खाता है या नहीं ?
जहाँ तक मेरा अनुमान है, इन दोनों गणनाओं में पारस्परिक कोई विरोध नहीं है । दोनों का विषय भिन्न भिन्न होने से इनमें विरोध होने का कारण भी नहीं है ।
स्थविर गणनानुसार स्थविर भद्रबाहु का स्वर्गवास निर्वाण से १७० वें वर्ष में आता है और राजत्वकाल-गणना का प्रतिपादक “तित्थोगाली पइन्नय" भी भद्रबाहु का स्वर्गवास निर्वाणाब्द १७० में ही बताता है" । इससे १७० तक तो ये दोनों पद्धतियाँ बराबर संगत हैं ।
लिखा है कि 'वे (कालक) ऐसे विद्वान् होने पर भी ऐसा मुहूर्त नहीं जान सके कि जिसमें दीक्षा देने से शिष्य स्थिर हों । इन निर्वेद से उन्होंने आजीवकों के पास निमित्त पढ़ा |
चूर्णिका निम्नलिखित उल्लेख देखिए -
"लोगणुओगे अज्जकालगा । सज्जेतवासिणा ( 2 ) एत्तिउं पढिउं सो न नाओ मुहुत्तो जत्थ पव्वाविओ थिरो होज्जा । तेण निव्वेएण आजीवगाण सगासे निमित्तं पढिअं ।" - पञ्चकल्पचूर्णि प० २४ । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आचार्य होने के बाद अपने शिष्यों का अस्थैर्य देखकर उन्होंने निमित्त पढ़ा, फिर वे पारिस में गए और उसके बाद ४५३ में गर्दभिल्ल का उच्छेदन कराया । इस प्रकार ४५३ के बहुत पहले ही कालक की आचार्य पद स्थापना हो चुकी थी ।
४८. यद्यपि तित्थोगाली में भद्रबाहु का १७० में स्वर्गवास होने का नामपूर्वक उल्लेख नहीं है, तथापि १७० में स्थूलभद्र की विद्यमानता में चौदहपूर्व के विच्छेद होने का उल्लेख
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