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. वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
आगे आर्य महागिरि ३०, आर्य सुहस्ती ४६ और गुणसुंदर ४४ वर्ष तक युगप्रधान रहे, एवं निर्वाण को ३३५ वर्ष व्यतीत हुए ।
उसके बाद निगोद व्याख्याता कालकाचार्य४६ ४१ वर्ष और सांडिल्य ३८ वर्ष युगप्रधान रहे और निर्वाण के ४१४ वर्ष पूरे हुए ।
४६. कहते हैं कि ये कालकाचार्य निगोद के जीवों के संबंध में अच्छा व्याख्यान कर सकते थे, जिससे एक बार इंद्र ने ब्राह्मण के वेश में इनके पास आकर निगोद का व्याख्यान सुना था और इनकी स्तुति की थी । निगोद के व्याख्यान में कुशल होने से ये निगोद-व्याख्याता के नाम से प्रसिद्ध थे । कालकाचार्य नाम के अनेक आचार्यों के हो जाने से व्यवच्छेदार्थ यहाँ पर "निगोदवक्खाय' यह विशेषण ग्रहण किया है । इनको निर्वाण से ३३५ वें वर्ष के अंत में युगप्रधान पद मिला और ४१ वर्ष तक ये इस पद पर रहे, जैसा कि स्थविरावली की गाथा में कहा है। परंतु विचारश्रेणी के परिशिष्ट में एक गाथा है जो इनका ३२० में होना प्रतिपादित करती है। पाठकों के विलोकनार्थ वह गाथा नीचे उद्धृत की जाती है- .
"सिरिवीरजिणिदाओ, वरिससया तिन्निवीस (३२०) अहियाओ। कालयसूरी जाओ, सक्को पडिबोहिओ जेण ॥१॥"
मालूम होता है, इस गाथा का आशय कालक सूरि के दीक्षा समय को निरूपण करने का होगा ।
"उज्जेणिकालखमणा, सागरखमणा सुवन्नभूमीए । पुच्छा आउयसेसं, इंदो सादिव्वकरणं च ॥"
__ -उत्तराध्ययन नियुक्ति । इस गाथा में सागर के दादागुरु कालकाचार्य के साथ इंद्र का प्रश्न आदि होना लिखा है, गर्दभिल्लोच्छेदक, चतुर्थी पर्युषणाकारक और अविनीत शिष्य परिहारक एक ही कालकाचार्य थे, जो ४५३ में विद्यमान थे और श्यामाचार्य की अपेक्षा दूसरे थे । प्रस्तुत स्थविरावलि की गाथा में प्रथम कालकाचार्य को निगोद व्याख्याता लिखा है जो कि इस विषय का एक स्पष्ट मतभेद है ।
रत्नसंचय में ४ संगृहीत गाथाएँ हैं, जिनमें निर्वाण से ३३५, ४५४, ७२०, और ९९३ में कालकाचार्य नामक आचार्यों के होने का निर्देश है । इनमें से पहले और दूसरे समय में होनेवाले कालकाचार्य क्रमश: निगोद व्याख्याता और गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य हैं । इसमें तो कोई संदेह नहीं है पर ७२० वर्षवाले कालकाचार्य के अस्तित्व के संबंध में अभी तक दूसरा कोई प्रमाण नहीं मिला ।
वीर--५
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