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________________ ६४ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना होना भी लिखा है पर मेरे विचारानुसार युगप्रधानत्व काल के बाद भी वे अधिक समय तक जीवित रहे थे। आर्य महागिरिजी के संबंध में यह बात सुप्रसिद्ध है कि उन्होंने पिछले समय में अपना साधु समुदाय आर्य सुहस्ती को सुपुर्द कर दिया था और आप गच्छ की निश्रा में रहते हुए भी जिनकल्प का अनुकरण करते थे। इससे यह अवश्य मानना पड़ेगा कि उन्होंने गण समर्पण के साथ ही अपना युगप्रधान-पद भी आर्य सुहस्ती को समर्पित किया होगा। क्योंकि ऐसा किए वगैर वे किसी तरह जिनकल्प की तुलना कर ही नहीं सकते थे । आवश्यक चूर्णि आदि ग्रंथों में जो आर्य महागिरिजी के जीवन के प्रसंग उल्लिखित हैं उनसे भी आर्य महागिरि के पिछले जीवन की केवल नि:संगता ही टपकती है । इससे यह बात अवश्य मानने योग्य है कि आर्य महागिरिजी ने पिछले समय में गच्छ और संघ के कार्यों से अपना संबंध छोड़ दिया था, और गच्छ-संघ के कामों का प्रपंच छोड़कर वे किसी हालत में संघस्थविर के पद पर नहीं रह सकते थे । इससे सिद्ध होता है कि आर्य महागिरि ने पिछले समय में युगप्रधान पद छोड़ दिया होगा । संप्रति के जीवद्रमक को कोशंबाहार में आर्य सुहस्ती ने दीक्षा दी उस समय आर्य महागिरिजी जीवित थे, और उस समय मगध की राज-गद्दी पर मौर्य अशोक था, क्योंकि द्रमक साधु उसी दिन मरकर राज-कुँवर कुनाल का पुत्र संप्रति हुआ माना गया है । अशोक का राजत्व काल निर्वाण से २५९ से शुरू होकर २९५ में पूरा हुआ था, इससे यह बात अवश्य विचारणीय है कि आर्य महागिरि यदि २४५ में ही स्वर्गवासी हो गए होते तो अशोक के समय में द्रमक के दीक्षा प्रसंग पर उनकी विद्यमानता के उल्लेख नहीं मिलते । इससे यह तो प्रायः निश्चित है कि आर्य महागिरिजी का २४५ में नहीं पर २५९ के बाद स्वर्गवास हुआ था, पर २५९ के बाद वे कब स्वर्गवासी हुए इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। . मेरे पास के एक युगप्रधान यन्त्र में स्थूलभद्र के अनंतर के युगप्रधान का पर्याय काल ४६ वर्ष का लिखा हुआ है । इससे यदि यह अनुमान कर लिया जाय कि ये २४६ वर्ष स्थूलभद्र के पीछे उनके शिष्य महागिरि की जीवित दशा के सूचक हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि आर्य महागिरि का स्वर्गवास निर्वाण संवत् २६१ के अंत में हुआ था । मेरी इस मान्यता के अनुसार आर्य स्थूलभद्र, महागिरि और सुहस्ती के भिन्न भिन्न प्रसंगो का काल-सूचक कोष्टक नीचे लिखे अनुसार बन सकता हैनिवार्ण से (गतवर्ष) जन्म दीक्षा यु० प्र० पद यु० प्र० पद निक्षेप स्वर्ग० १. स्थूलभद्र १२६ १५६ १७० २१५ २. आर्य महागिरि १६१ १९१ २१५ २४५ २६१ ३. आर्य सुहस्ती १९१ २२१ २४५ २९१ २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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