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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना से महावीर के धर्मप्रचार की क्रोडास्थली बनी हुई मगध-भूमि से निग्रंथ श्रमणों के पैर उखड़ने लगे । हजारों जैन साधु मगध देश की अति परिचित भूमि का परित्याग करके चारों ओर विचरने लगे । यों तो मौर्य संप्रति के समय से ही मध्य और पश्चिम हिंदुस्थान में जैन श्रमणों का जमाव होने लगा था, पर पुष्यमित्र की इस धार्मिक क्रांति ने मगध के श्रमणगण को भी इधर खदेड़ दिया । परिणामतः मगध के राजवंश से जैनों का संबंध कम हो गया, परंतु मौर्य वंश के अंत और शुंग पुष्यमित्र के राज्यारंभ के काल को जैन आचार्य भूले नहीं थे । आजकल करते इस बात को ३५ वर्ष हो चुके थे। मगध पर अभी तक पुष्यमित्र का ही अमल था और संभवतः उसकी जिंदगी का यह अंतिम वर्ष था । ठीक इसी अर्से में लाट देश की राजधानी भरुकक्ष (भरोच) में बलमित्र का राज्याभिषेक हुआ । जैनाचार्यों ने पुष्यमित्र के ३५ वर्षों से ही अपनी गणना शृंखला का चौथा आँकड़ा पूरा कर लिया और आगे वे जैन राजा बलमित्र के राज्यकाल की गणना करने लगे । बलमित्र-भानुमित्र के अमल के ४७ वें वर्ष के आसपास उज्जयिनी में एक अनिष्ट घटना हो गई । वहाँ के गर्दभिल्ल वंशीय राजा दीर्पण३८ ने ___३६. संप्रति के समय के पहले से ही आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती अनेकबार मालवे की तरफ विचरे थे और संप्रति के समय में तो उनके शिष्य सौराष्ट्र (काठियावाड़) तक विचरने लगे थे । आर्य सुहस्ती के शिष्य ऋषि गुप्त से निकले हुए 'मानवगण' की ४ शाखाओं में एक शाखा का नाम 'सोरट्ठिया' अर्थात् 'सौराष्ट्रिका' था जो सोरठ अथवा आजकल के काठियावाड से निकली थी । इससे यह बात तो निश्चित है कि संप्रति मौर्य के राजत्वकाल में जैन श्रमणों का विहार सौराष्ट्र तक होता था, इतना ही नहीं बल्कि वहाँ श्रमणों का अच्छा जमाव हो गया था । ___३७. पुराणों में पुष्यमित्र का राजत्वकाल ३६ वर्ष का लिखा है और जैनाचार्यों ने इसके ३५ वर्ष लिखे हैं । मालूम होता है, जैनाचार्यों ने बृहद्रथ का अंतिम वर्षं और पुष्यमित्र का आदि वर्ष एक मान लिया है और पुराणकारों ने उन्हें जुदा जुदा मानके पुष्यमित्र के ३६ वर्ष मान लिए होंगे । ३८. जैन लेखकों का कथन है कि जिस राजा ने कालकाचार्य की बहिन सरस्वती का अपहरण किया था उसका नाम 'दप्पण' (दर्पण) था और किसी योगी की तरफ से गर्दभी-विद्या प्राप्त करने से वह 'गर्दभिल्ल' कहलाता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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