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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना में धार्मिक विप्लव मचाया । वह साधुओं से कर वसूल करने और कर देने से इनकार करने वाले साधुओं को कैद करके भूखों मारने लगा । जैन संघ ने किसी तरह इस उत्पात के समाचार कलिंग के जैन राजा खारवेल को पहुँचाए, तब वह पुष्यमित्र पर चढ़ आया, और अपार हस्तिसेना से कलिंगराज ने पाटलिपुत्र को घेर लिया । पुष्यमित्र विवश हो खारवेल से संधि "अठमे च वसे महता सेना.........गोरधगिरिं' घातापयिता राजगहं उपपीडापयति [1] एतिनं च कंमापदान - संनादेन संवित सेनवाहनो विपमुंचितु मधुरं अपयातो यवनराज डिमित.......' यह लेख श्री० के० पी० जायसवाल के वाचनानुसार है, और इसका तात्पर्यार्थ यह है कि 'आठवें वर्ष खारवेल बड़ी सेना से मगध पर चढ़ गया और गोरथगिरि नामक किले को तोड़कर राजगृह को घेर लिया । इस हाल को सुनकर यवनराज डिमित मथुरा को छोड़कर अपनी सेना के साथ पीछे हट गया । परंतु मैं इस लेखांश को इस प्रकार पढ़ता हूँ - "अठमे च वसे मोरियं राजानं धमगुतं घातापेति पशुमितो घातापयिता राजगहं उपपीडापयति एतिना च कंमपदान-पनादेन संवीतसेनवाहिनि विपमुंचित मधुरं अपायातो येव बहसदि मितं..... " अर्थात्-'राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में मौर्यराजा धर्मगुप्त को मरवा कर पुष्यमित्र राजगृह में आतंक मचा रहा है यह बात सुनकर सेना से घिरी हुई मथुरा को छोड़कर (खारवेल) बृहस्पति मित्र को (शिक्षा देने के लिये राजगृह पर चढ़ आया) ।' इस फिकरे में जो मौर्य राजा का नाम धर्मगुप्त है वह मौर्यराज बृहद्रथ का नामांतर हो सकता है, और 'बृहस्पति मित्र' यह 'पुष्यमित्र का नामांतर है । यह बात विद्वानों की मानी हुई है । इससे यही साबित होता है कि बृहद्रथ वा धर्मगुप्त मौर्य को मारकर पुष्यमित्र ने राजगृह में मार काट की । उस समय खारवेलें मथुरा को घेरे हुए था । जब उसने राजगृह का उत्पात सुना तो एकदम अपनी विशेष सेना के साथ पुष्यमित्र पर चढ़ आया और वहाँ का उपद्रव शांत किया । खारवेल ने उत्तर हिंदुस्थान के देशों पर चढ़ाई की थी, इसकी सूचना खारवेल के लेख में भी है । बारहवें वर्ष के कर्तव्यों के निरूपण में वह लिखता है कि ".....हजारों से उत्तरापथ के राजाओं को डराता है" (सहसे हिं वितासयति उत्तरापथ राजानो) । ३३. खारवेल की इस दूसरी चढ़ाई के संबंध में उसके हाथीगुंफावाले लेख में इस प्रकार उल्लेख हुआ है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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