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________________ जैन काल-गणना-विषयक एक तीसरी प्राचीन परंपरा १७९ है। इसमें जिन जिन विशेष बातों का वर्णन है उनका यथास्थान उल्लेख किया जा चुका है। इस थेरावली में जो गणना-पद्धति दी है वह कहाँ तक ठीक है, यह कहना कठिन है । हाँ, इतना अवश्य कहना पडेगा कि यह पद्धति भी है प्राचीन । आचार्य देवसेनादि ने विक्रम मृत्यु संवत् का जो निर्देश किया है उसका बीज इसी गणना-पद्धति में संनिहित है, यह पहले कहा जा चुका है। हमने “वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना" नामक निबंध में और उसके टिप्पण में जिन जिन बातों की चर्चा की है उनमें से कतिपय बातों का इस थेरावली से समर्थन होता है और कतिपय का खंडन भी, तो भी जब तक इस थेरावली की मूल पुस्तक परीक्षा की कसौटी पर चढ़ाकर प्रामाणिक नहीं ठहराई जाती, इसके उल्लेखों से चिंतित विषय में रद्दो-बदल करना उचित नहीं है । वस्तुतः हमारी गणना से वीर निर्वाण संवत् विषयक जो मुख्य सिद्धांत स्थापित होता है उसका, यह गणना भी वीर और विक्रम का मृत्यु-अंतर ४७० वर्ष का बताकर समर्थन ही कर रही है । अस्तु । थेरावली में जो जो नई बातें दृष्टिगोचर हुई है उनकी सत्यता के विषय में हमें अधिक संशय करने की आवश्यकता नहीं है । इनमें से कतिपय घटनाओं का तो पुराने से पुराने शिलालेखों और ग्रंथों से भी समर्थन होता है । श्रेणिक और कोणिक के जैन होने की बात जैनसूत्रों में प्रसिद्ध है, इनके द्वारा कलिंग के तीर्थरूप पर्वत पर जिन-प्रासाद और स्तूपों का बनना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है । नंद राजा द्वारा कलिंग से जिन-प्रतिमा का पाटलिपुत्र में ले जाना और वहाँ से खारवेल द्वारा उसका फिर कलिंग में ले आना खारवेल के लेख से ही सिद्ध है । कुमारी पर्वत पर खारवेल के कराए हुए धार्मिक कार्य२२ तथा अंग सूत्रों के उद्धार का उल्लेख २२. खारवेल के, अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में, कुमारी पर्वत (उदयगिरि) की निषद्याओं (स्तूपों) में रहनेवालों के लिये राज्य की तरफ से आय बाँधने के संबंध में इस प्रकार उल्लेख है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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