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जैन काल-गणना-विषयक एक तीसरी प्राचीन परंपरा
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कुमारी नामक दोनों पर्वतों पर उस श्रेणिक राजा ने भगवान् ऋषभस्वामी तीर्थंकर का अति मनोहर प्रासाद बनवाया और उसमें श्री ऋषभदेव प्रभु की सुवर्णमयी प्रतिमा सुधर्मस्वामि द्वारा प्रतिष्ठित कराकर स्थापित की थी। इसके अतिरिक्त श्रेणिक ने उन दोनों पर्वतों में निग्रंथ निग्रंथियों के चातुर्मास्य में रहने योग्य अनेक गुफाएँ खुदवाई थीं, जिनमें अनेक निग्रंथ और निग्रंथियाँ धर्म, जागरण, ध्यान, शास्त्राध्ययन और विविध तपस्या के साथ स्थिरतापूर्वक चातुर्मास्य करते हैं ।
श्रेणिक का पुत्र अजातशत्रु अपर नाम कोणिक हुआ जिसने अपने बाप को पिंजड़े में कैद कर चंपा को मगध की राजधानी बनाया । कोणिक भी श्रेणिक की भाँति जैनधर्म का अनुयायी उत्कृष्ट श्रावक था । उसने भी कलिंग देश के कुमार तथा कुमारी पर्वत पर अपने नाम से अंकित पाँच गुफाएँ खुदवाईं । पर पिछले समय में कोणिक ने अति लोभ
और अभिमान में आकर चक्रवर्ती बनने की इच्छा की, जिसके परिणाम स्वरूप उसे कृतमाल देव ने मार डाला ।
भगवान् महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष के बाद पार्श्वनाथ की परंपरा के ६ठे पट्टधर आचार्य रत्नप्रभ ने उपकेश नगर में १८०००० क्षत्रियपुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया, वहाँ से उपकेश नामक वंश चला।
भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद ३१ वर्ष बीतने पर कोणिकपुत्र उदायी ने पाटलिपुत्र नगर बसाया और उसे मगध की राजधानी बनाकर वह राज्य का कारोबार वहाँ ले गया ।
उस समय में उदायी को दृढ़ जैनश्रावक जानकर साधुवेशधारी किसी दुश्मन ने धर्मकथा सुनाने के बहाने एकांत में ले जाकर मार डाला ।
प्रभु महावीर के निर्वाण के अनंतर ६० वर्ष व्यतीत होने पर नंद नाम के नापितपुत्र को मंत्रियों ने पाटलिपुत्र नगर में राज्यासन पर बिठाया। उसके वंश में क्रमश: नंद नामक नव राजा हुए । उनमें का आठवाँ नंद अत्यंत लोभी था । मिथ्यात्व से अंधे बने हुए उस नंद ने विरोचन नामक अपने ब्राह्मण मंत्री की प्रेरणा से कलिंग देश का नाश किया और तीर्थस्वरूप
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