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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
यद्यपि इस गाथा के सिवाय दूसरे किसी ग्रंथ में यह स्पष्ट नहीं लिखा कि विक्रम राज्य के किस वर्ष में संवत्सर की प्रवृत्ति हुई थी, पर अनेक लेखक यह तो अवश्य कहते हैं कि निर्वाण से ४७० वर्ष में विक्रम का राज्य प्रारंभ हुआ और बाद में संवत्सर प्रचलित हुआ । १०३
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कुछ भी हो, पर यह बात तो निश्चित है कि पिछले समय में जैन संघ में एक ऐसा समुदाय भी वर्तमान था, जो वीर निर्वाण का विक्रम राज्यारंभ से और उसके नाम से प्रचलित संवत्सर से जुदा जुदा अंतर मानता था और इस मान्यता का कारण मेरे विचार से ५२ वर्ष के विपर्यास के परिणामस्वरूप
"तेरसवासेसु वच्छरपवित्तो"
इस वाक्य के वास्तविक अर्थ का विस्मरण और काल्पनिक अर्थ की उत्पत्ति ही था । और वालभी गणना में जो १३ वर्ष अधिक आते थे वे इस मान्यता के समर्थक थे ।
निर्वाणसमय विषयक दिगंबरीय सम्मति
अब तक हमने निर्वाण - समय का विचार श्वेतांबर जैनों के सूत्र और प्रकरणों के आधार पर ही किया है, पर इस विषय में दिगंबर जैनाचार्यों की क्या सम्मति है इसका उल्लेख नहीं किया । किंतु जहाँ तक हमारा ख्याल है, निर्वाण समय के बारे में प्रामाणिक दिगंबराचार्यों का भी वही मत है जो श्वेतांबर जैनाचार्यों ने "तित्थोगाली पइन्नय" आदि ग्रंथों में निरूपण किया है ।
यह बात बार बार कही गई है कि हमारी गणना में वीर निर्वाण और शक संवत्सर के बीच ६०५ वर्ष और ५ मास का अंतर माना गया है, और ठीक यही मान्यता दिगंबर जैनाचार्य यति वृषभ की "तिलोय पन्नति" और सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य नेमिचंद्र के "तिलोय सार" में दृष्टिगोचर होती है ।
प्रस्तुत विषय की तिलोय पन्नति की गाथा यह है
१०३. देखो टिप्पण नं० १०० ।
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