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________________ १४६ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना । माथुरी वाचनावालों के मतानुसार वीर निर्वाण और विक्रम संवत्सर का अंतर ४७० वर्ष का था, इस मान्यता को व्यक्त करते हुए वे कहते "विक्कमरज्जारंभा, पुरओ सिरिवीरनिव्वुई भणिया । सुन्नमुणिवेयजुत्तो, विक्कमकालाउ जिणकालो ॥ १०१ अर्थात् 'विक्रम राज्यारंभ के ४७० वर्ष पहले वीर निर्वाण हुआ इसलिये विक्रमकाल में ४७० वर्ष मिलाने पर जिनकाल होगा ।' इस मान्यता के उत्तर में वालभी वाचनानुयायी कहते थे-नहीं, विक्रमकाल में ४७० वर्ष ही नहीं, पर ४८३ वर्ष डालने से जिनकाल आयगा, क्योंकि ४७० वर्ष का अंतर तो निर्वाण और विक्रम राज्यारंभ का है, और राज्यारंभ के बाद १३ वर्ष में विक्रम संवत्सर प्रवृत्त हुआ इसलिये ४८३ (४७०० + १३ = ४८३) डालने से ही वीर और विक्रम संवत् का अंतर निकलेगा । इसी तात्पर्य को सूचित करनेवाली निम्नलिखित गाथा विद्यमान है "विक्कमरज्जाणंतर तेरसवासेसु वच्छरपवित्तो । सिरिवीरमुक्खओ वा चउसयतेसीइवासाओ ॥''१०२ १०१. यह गाथा मेरुतुंग व्याख्यात स्थविरालवी में है, इसका उत्तरार्द्ध मात्र धर्मघोषसूरि की कालसप्तकि में भी है । इसके सिवा प्रकीर्णक गाथा पत्रों में भी यह गाथा अनेक जगह दृष्टिगत होती है, पर अभी तक यह मालूम नहीं हुआ कि यह गाथा है किस ग्रंथ की और किसकी रचना। १०२. यह गाथा भी किस मौलिक ग्रंथ की है इसका पता नहीं है । हमने यह गाथा बड़ोदे के सेठ अम्बालाल नानाभाई के पुस्तकभंडार में रक्षित प्रकीर्णक प्राचीन पत्रों में से लिखी थी । यही गाथा मेरुतुंगीय विचारश्रेणि के परिशिष्ट में भी दृष्टिगोचर होती है पर वहाँ इसके चतुर्थ चरण में "चउसय तेसीइ" के स्थान में "चउसय तेवीस" पाठ है । साथ ही वहाँ नीचे लिखा है कि 'यह गाथा तित्थोगाली प्रकीर्णक में है' (तित्थुगाली प्रकीर्णके) परंतु वर्तमान में उपलब्ध तित्थोगाली प्रकीर्णक में यह गाथा नहीं है। मालूम होता है, अनेक गाथाएँ जैसे तीर्थोद्धार प्रकीर्णके नाम पर चढ़ा दी गई हैं उसी प्रकार इस पर भी किसी ने योंही तित्थोगाली प्रकरण की मुहर लगा दी है। कुछ भी हो, पर यह तो निश्चित है कि वीरनिर्वाण के संबंध में जैनों में १३ वर्ष का मतभेद रूढ़ होने के उपरांत विक्रम संवत् लिखने की प्रवृत्ति शुरू होने के बाद की ये दोनों गाथाएँ हैं जो दोनों पक्ष के मत की रूपरेखा प्रदर्शित करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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