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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
जीर्ण देखा, मंत्री ने उसका जीर्णोद्धार कराकर विक्रम संवत् ७ में जीवदेवसूरि के हाथ से ध्वजदंड की प्रतिष्ठा कराई ।'
प्रबंध के मूल शब्द इस प्रकार हैं
" इतः श्रीविक्रमादित्यः शास्त्यवंतीं निराधिपः । अनृणां पृथिवीं कुर्वन् प्रवर्तयति वत्सरम् ॥७१॥
वाटे प्रेषितोऽमात्यो लिम्बाख्यस्तेन भूभुजा । जनानृण्याय जीर्णं चाऽपश्यच्छ्रीवीरधाम तत् ॥७२॥ उद्दधार स्ववंशेन निजेन सह मंदिरम् । अर्हंतस्तत्र सौवर्ण-कुंभदंडध्वजालिभृत् ॥७३॥ संवत्सरे प्रवृत्ते स षट्सु वर्षेषु पूर्वतः । गतेषु सप्तमस्यांतः प्रतिष्ठां ध्वजकुंभयोः ||७४ |
श्रीजीवदेवसूरिभ्यस्तेभ्यस्तत्र व्यधापयत् । अद्याप्यभङ्गं तत्तीर्थममूहग्भिः प्रतिष्ठितम् ॥७५॥
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- प्रभावकचरित्र पृ० ८३ ।
जिनप्रभसूरि के पावापुरी कल्प में भी इसी आशय का उल्लेख है कि 'महावीरनिर्वाण के अनंतर पालक, नंद, चंद्रगुप्त आदि राजाओं के बाद ४७० वर्ष पर विक्रमादित्य राजा होगा । ४७० वर्ष का लेखा इस प्रकार है- पालक वर्ष ६०, नवनंद १५५, मौर्यवंश १०८, पुष्यमित्र ३०, बलमित्र भानुमित्र ६०, नरवाहन ४०, गर्दभिल्ल १३ और शक राज्यवर्ष ४ । कुल जोड़ ४७० । इसके बाद विक्रमादित्य राजा होगा । वह (विक्रम) सुवर्ण पुरुष को सिद्ध करके पृथिवी को उऋण कर अपना संवत्सर चलावेगा ।'
उक्त कल्प का मूलपाठ इस प्रकार है
" मह मुक्खगमणाओ पालय - नंद - चंदगुत्ताइ - राईसु बोलीणेसु चउसयसत्तरेहिं वासेहिं विक्कमाइच्चो राया होही । तत्थ सट्ठी वरिसाणं पालगस्स रज्जं, पणपन्नसयं नंदाणं, अट्टुत्तरं सयं मोरियवंसाणं, तीसं पूसमित्तस्स, सट्ठी बलमित्त - भाणुमित्ताणं, चालीसं नरवाहणस्स, तेरस गद्दभिल्लस्स, चत्तारि सगस्स । तओ विक्कमाइच्चो, सो साहियसुवण्णपुरिसो पुहवि अरिणं काउं नियसंवच्छरं पवत्तेही ।"
-- पावापुरी कल्प पत्र ६ ।
इन उल्लेखों से यह तो स्पष्ट झलकता है कि वीरनिर्वाण से ४७० वर्ष के बाद विक्रमादित्य राजा हुआ और उसके बाद कालांतर में उसने अपना संवत्सर प्रचलित किया, पर वह अंतर कितने वर्षों का था इसका इन उल्लेखों में स्पष्टीकरण नहीं है ।
वीर - १०
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