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________________ १४४ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना १५२ वर्ष का लेखा भी मिल जाता है । और दर्पण १, बलमित्र २, भानुमित्र ३, नभ: सेन ४, भाइल्ल ५, नाइल्ल ५ और नाहड़ ७ इस प्रकार गर्दभिल्लों की पुराणोक्त संख्या भी मिल जाती है । यदि उपर्युक्त हमारा अनुमान ठीक माना जाय तो इसका अर्थ यही होगा कि मौर्यकाल में से जो ५२ वर्ष छूट गए थे उनकी जगह पूरी करने के लिये पिछले लेखक बलमित्र के १२ और नभः सेन के ४० वर्षों को भूल से दुबारा गिनकर लेखा ठीक करते थे । १३ वर्ष के मतभेद का कारण हम ऊपर देख आए हैं कि राजत्वकालगणना में कुछ गड़बड़ अवश्य हो गई थी, पर निर्वाण और शक के अंतर में मतभेद नहीं था । माथुरी गणना से, वालभी गणना से, मौर्यों के १६० वर्ष मानने से और उनके १०८ वर्ष मानने से भी निर्वाण और शक का अंतर तो ६०५ वर्ष तक ही आता था । इससे यह तो निश्चित है कि जब शक संवत्सर की प्रवृत्ति हुई वहाँ तक जैनों में महावीर निर्वाण के संबंध में कोई मतभेद नहीं था । परंतु पूर्व वर्णित ५२ वर्ष इधर उधर हो जाने के बाद जब " विक्कमरज्जाणंतर तेरसवासेहि वच्छरपवित्ती ।" - इस वाक्य का वास्तविक अर्थ चला गया और -- 'वीर निर्वाण से ४७० वर्ष के बाद विक्रम राजा हुआ और पृथिवी को उऋण करके राज्य के तेरहवें वर्ष में उसने अपना संवत्सर चलाया ।' जब इस तरह की अथवा इससे मिलती जुलती मान्यता रूढ़ हो चली ०० तभी से इस १३ वर्ष के आधिक्यवाली मान्यता का समर्थन किया जाने लगा । १००. जब से विक्रम नाम के साथ संवत् लिखने की प्रथा चली है तभी से इस विषय में अनेक प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हो चली हैं । 'विक्रम पहले अवंति का राजा हुआ और पीछे उसने पृथिवी का ऋण चुकाकर अपना संवत्सर चलाया' इस आशय के उल्लेख भी अनेक ग्रंथों में हैं । प्रभावकचरित्र के जीवदेवसूरि प्रबंध में आचार्य प्रभाचंद्रसूरि ने लिखा है कि 'जिस समय आचार्य जीवदेवसूरि वायट नगर में थे उस समय विक्रमादित्य अवंती (उज्जयिनी) में राज्य करता था, संवत्सर प्रवृत्ति के निमित्त पृथिवी का ऋण चुकाने के लिये राजा ने अपने मंत्री लाबा को वायट भेजा जहाँ उसने प्रसिद्ध महावीर का मंदिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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