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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
" अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ" - इस मान्यतावाली माथुरी वाचना के साथ
"वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ " - इस आशयवाली वालभी वाचना एकरूप हो जाती ।
एक ही भूल का परिणाम
अब हम उस भूल के संबंध में कुछ लिखेंगे, जो चिरकाल से हमारी राजत्वकालगणना में चली जा रही है, और जिसके कारण जैन इतिहास की अनेक सत्य घटनाएँ विद्वानों की दृष्टि में शंकित हो गई हैं । पर आश्चर्य है कि उस मूल अशुद्धि की तरफ किसी की नजर नहीं पहुँची ।
मैंने जो पहले 'राजत्वकालगणना' का वर्णन किया है उसमें नंदों के १५०, मौर्यों के १६० और पुष्यमित्र के ३५ वर्ष दिए हैं, पर पाठकगण देखेंगे कि आजकल इस विषय की जो जो गाथाएँ हमें उपलब्ध होती है उन सभी में नंदों के १५५, मौर्यों के १०८ और पुष्यमित्र के ३० वर्ष लिखे हुए मिलते हैं, जो कि एक चिरकालीन अशुद्धि का परिणाममात्र है । ९°
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इसमें भद्रगुप्त का युगप्रधानत्व समय बतानेवाला शब्द " इगयाल" है, इसका संस्कृत पर्याय “एकचत्वारिंशत् " है, जो ४१ संख्या का वाचक है । यहाँ मूल शब्द " इगुणयाल" होगा ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा मानने पर गाथा में " चउचत्तिगुणयाल" ऐसा रूप होगा जो छंदोभंग होने के कारण प्रत्यक्ष अशुद्ध है । प्रस्तुत थेरावली गाथा में " इगुणयाल" के स्थान जो " इगयाल" शब्द आ पड़ा है वह अवश्य ही कारणिक है और जहाँ तक मेरा ख्याल है इसका कारण भद्रगुप्त का ४१ वर्ष प्रमाण युग प्रधानपर्याय माननेवाली कोई परंपरा है, इसी परंपरा के स्मरणवश थेरावलीकार ने ३९ संख्यावाचक 'इगुणयाल' शब्द के स्थान में ४९ वाचक 'इगयाल' शब्द लिख दिया है। बहुत संभव है, माथुरी स्थविरावली भद्रगुप्त का युगप्रधानत्व पर्याय ४१ वर्ष प्रमाण मानती होगी, भद्रगुप्त के बाद यह थेरावली आर्यवज्र को युगप्रधान मानती है और आर्यरक्षित का स्वर्गवास वी० सं० ५८४ में मानती है इससे भी यही पाया जाता है कि इस स्थविरावलीकार के मत में भद्रगुप्त का युगप्रधानत्व पर्याय ४१ वर्ष का ही होगा ।
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८९. पुराणकारों ने ३६ वर्ष तक पुष्यमित्र का राज्य करना लिखा है, इसके लिये देखो टिप्पण नं० ३७ ।
९०. 'तित्थोगाली पइन्नय' विविध 'पट्टावली और 'दुष्षमाकाल गंडिका' आदि
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