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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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इस विरोध से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि भद्रगुप्त के बाद आर्यरक्षित के पहले के समय की गणना में ही कहीं गड़बड़ हो गई है, और इस गड़बड़ का कारण हमारी समझ में वालभी स्थविरावली में भद्रगुप्त के पीछे श्रीगुप्त के समय को भिन्न मानना - यही हो सकता है ।
माथुरी वाचनानुगत आवश्यक नियुक्ति और चूर्णि के मत से आर्यरक्षितजी का स्वर्गवास निर्वाण संवत् ५८४ में हो जाता है,८६ पर वालभी स्थविरावली में इनका स्वर्गवास वीर संवत् ५९७ में होना लिखा है । आचार्य देवद्धिजी ने कल्पसूत्र में निर्वाण विषयक १३ वर्ष का जो मत-भेद सूचित किया है उसका यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।
यदि भद्रगुप्त का युगप्रधानत्व पर्याय ३९ के स्थान में ४१ वर्ष का मान लिया जाता-जैसा कि वालभी स्थविरावली की ही एक गाथा में लिखा है,८ और गणना में से श्रीगुप्त के १५ वर्ष-जो प्रक्षिप्त हैं - कम कर दिए जाते तो उक्त सब विरोध मिट जाता और -
८६. आवश्यक चूर्णि, उत्तराध्ययन टीका आदि में निह्नवोत्पत्ति अधिकार में गोष्ठामाहिल निह्नव की उत्पत्ति भी विस्तारपूर्वक लिखी गई है जिसका सार यही है कि 'आर्य रक्षितजी का स्वर्गवास हुआ उसी वर्ष दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल ने 'अबर्द्धि' मत निकाला । गोष्ठामाहिल का अबद्धि -मत आवश्यक नियुक्ति के लेखानुसार वीर सं० ५८४ में निकला था, देखो निम्नलिखित गाथा
"पंच सया चुलसीया, तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो अबद्धियदिट्ठी, दसउरनयरे समुप्पन्ना । ॥२६५॥"
___ -आवश्यक नियुक्ति । इस प्रकार जब गोष्ठामाहिल के मत की उत्पत्ति ५८४ में है तो इसके पूर्व भावी आर्य रक्षितजी का स्वर्गवास-समय भी ५८४ में ही हो सकता है, पीछे नहीं ।
८७. इसके लिये टिप्पण नं० ८४ देखो ।
८८. आचार्य मेरुतुंग ने अपनी विचार श्रेणी में प्रथम उदय के युगप्रधानों का गृहस्थ-सामान्यश्रमण-युग प्रधानत्व-पर्याय बतानेवाली स्थविरावली की जो गाथाएँ दी हैं उनमें स्कंदिल, रेवतीमित्र, धर्म, भद्रगुप्त, श्रीगुप्त और वज्र का क्रमशः युगप्रधानत्व पर्याय बतानेवाला गाथा खंड इस प्रकार है
"अडतीसा छत्तीसा चउचत्तिगयालपनरछत्तीसा ।"
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