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________________ १३२ १५. आर्यसमुद्र १६. आर्यमंगू १७. आर्यधर्म १८. भद्रगुप्त १९. आर्यवज्र २०. आर्यरक्षित वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना १५. आर्यमंगू १६. आर्यधर्म १७. भद्रगुप्त १८. श्रीगुप्त १९. आर्यवज्र २०. आर्यरक्षित इस प्रकार दोनों स्थविरावलियों में आर्यरक्षित का नंबर २० वाँ है । पर वालभी गणना के लिये आर्यरक्षित का २० वाँ नंबर आना एक विरुद्ध घटना है, क्योंकि इस वाचनानुसारिणी युगप्रधान गंडिका, दुष्षमासंघ स्तोत्र आदि समग्र स्थविरावलियों और एतत्संबंधी यंत्रों में आर्यरक्षित को १९ वाँ स्थविर लिखा है, इससे यह बात निश्चित है कि इस वालभी गणना में एक स्थविर का नाम अधिक प्रक्षिप्त हो गया है । आचार्य मेरुतुंग इस विषय में कहते हैं " इह केपि मंगु- धर्मयोर्नाम्नैव भेदमाहुः । तन्मते आर्यधर्मस्य वर्षाणि ४४ ।" -विचार श्रेणी ५ । अर्थात् ‘कोई आचार्य मंगू और धर्म में नाम का ही भेद मानते हैं, याने मंगू और धर्म ये एक ही व्यक्ति के दो नाम कहते हैं उनके मत में आर्यधर्म के ४४ वर्ष होंगे ।' Jain Education International इस कथन के अनुसार आर्य मंगू का नाम कम करने से आर्यरक्षित का नंबर १९ वाँ हो सकता है, पर हम देखते हैं कि देवर्द्धिगणिजी ने नंदी की स्थविरावली में " भणगं करणं झरगं पभावरं नाणदंसण गुणाणं । वंदामि अज्जमंगुं सुयसागरपारगं धीरं ||३०| वंदामि अज्जधम्मं, वंदे तत्तो अ भद्दगुत्तं च ॥" इस तरह आर्यमंगू और धर्म का जुदा जुदा वंदन किया है । अन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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