________________
वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
शास्त्रों से भी मंगू और धर्म की भिन्नता प्रगट होती है, इसलिये हमारे मत में मंगू और धर्म को एक मानना निराधार ही नहीं, शास्त्रविरुद्ध भी है ।
१३३
मेरे नम्र अभिप्राय से तो मंगू का नहीं, पर भद्रगुप्त के बाद श्रीगुप्त का नाम वालभी स्थविरावली में अधिक प्रक्षिप्त हो गया है ।
माथुरी स्थविरावली में भद्रगुप्त के पीछे सीधा आर्यवज्र का ही स्थान है ।
निम्नलिखित घटनाएँ भी श्रीगुप्त के प्रक्षिप्तपन की ही सूचक हैं
'आर्यरक्षित ने पूर्वश्रुत का अध्ययन करने के लिये आर्यवज्र की ओर विहार किया, इस बीच में उज्जयिनी में उन्हें स्थविर भद्रगुप्त मिले और उन्होंने अपनी अनशननिर्यामण के लिये आर्यरक्षितजी को रोका । भद्रगुप्त के स्वर्गवास के बाद रक्षितार्य वज्रस्वामी के पास गए और पूर्वश्रुत का अध्ययन किया | १८३
वालभी स्थविरावली में भद्रगुप्त का स्वर्गवास निर्वाण संवत् ५३३ में हुआ लिखा है और आर्य रक्षित की दीक्षा ५४४८४ । में अब देखना चाहिए
८३. आर्यरक्षितजी की दीक्षा, पूर्वश्रुताध्ययन के निमित्त आर्य वज्र की ओर विहार, उज्जयिनी में स्थविरभद्रगुप्त का मिलाप, रक्षितार्य के द्वारा भद्रगुप्त की निर्यामणा और वज्र के पास रक्षितार्य का पूर्वश्रुत पठन इत्यादि बातों को सविस्तर जानने के लिये जिज्ञासुओं को आवश्यक निर्युक्ति की "देविदवंहिएहि " इस गाथा की चूर्णि (पृष्ठ ३९७ से ४१५ तक) या टीका देखनी चाहिए ।
८४. वालभी थेरावली की "रवइमित्ते छत्तीस" इस गाथा में आर्य मंगू का स्वर्गवास निर्वाण संवत् ४७० के अंत में बताया है और उसके बाद "चउबीस अज्जधम्मे" इस गाथा में २४ वर्ष आर्य धर्म के और ३९ वर्ष भद्रगुप्त के लिखे हैं, इस हिसाब से (४७० + २४ + ३९ = ५३३) पाँच सौ तेंतीसवें वर्ष में भद्रगुप्त का स्वर्गवास प्राप्त होता है । उधर इसी पट्टावली के
" सिरिगुत्तिपनरवइरे, छत्तीसं एव पणचुलसी || तेरसवासाणि सिरिअज्जरक्खिए"
इस लेखानुसार निर्वाण संवत् ५८४ में आर्य वज्र का स्वर्गवास होने पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org