________________
वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
१३१
माथुरी स्थविरावली या अन्य किसी ग्रंथ में गुणसुंदर का उल्लेख न होना भी यही साबित करता है कि ये किसी दूर प्रांत में प्रसिद्धि पाए हुए स्थविर होने चाहिएँ।
___इस प्रकार बलिसह और स्वाति के स्थान में अकेले गुणसुंदर को मान लेने से वालभी स्थविरावली में एक नंबर कम हो जाता है ।
आगे दोनों में श्यामार्य और संडिल युगप्रधान माने गए हैं ।
संडिल के बाद माथुरी में आर्यसमुद्र को और वालभी में रेवतीमित्र को संघस्थविर माना है ।
इसके आगे दोनों में आर्य मंगू, आर्य धर्म और भद्रगुप्त स्थविर गिने गए हैं।
माथुरी में भद्रगुप्त के पीछे वज्र और वज्र के बाद आर्यरक्षित का नंबर है, तब वालभी में भद्रगुप्त के पीछे १५ वर्ष तक श्रीगुप्त को संघस्थविर माना है, और इनके पीछे ३६ वर्ष वज्र के और वज्र के बाद आरक्षित का स्थान है।
व्यक्तीकरण इस प्रकार हैमाथुरी के अनुसार वालभी के अनुसार १०. आर्य सुहस्ती १०. आर्य सुहस्ती ११. बलिसह
११. गुणसुंदर १२. स्वाति
१२. श्यामार्य १३. श्यामार्य
. १३. खंदिल १४. सांडिल्य
१४. रेवतिमित्र और स्कंदिल का नाम न होने से वे संप्रदाय का सहारा लेते हैं, पर वस्तुस्थिति इससे भिन्न है । "सूरि बलिस्सह" से आरंभ होनेवाली शाखा माथुरी युगप्रधान पट्टावली है और गुणसुंदर से प्रारंभ होनेवाली वालभी युगप्रधान स्थविरावली । पहली में श्यामार्य के पीछे संडिल का नाम है ही, और दूसरी में भी सुहस्ती के पीछे गुणसुंदर युगप्रधान का नाम सर्व थेरावलियों में है ही । इसलिये इस विषय में संप्रदाय का सहारा लेने की कोई जरूरत नहीं है। 'सुठ्ठिय सुप्पडिबद्ध' से आरंभ होनेवाली परंपरा में गुणसुंदर का नाम न होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह सुहस्ती की शिष्यपरंपरा है, न कि युगप्रधान-परंपरा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org