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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
माथुरी - जो नंदि सूत्र के प्रारंभ में भगवान् देवद्धिगणि ने दी है, और दूसरी
८०. नंदी सूत्र के प्रारंभ में भगवान् देवर्द्धिगणिजी ने जो स्थविरावली दी है वह हमारे मत से माथुरी वाचनानुगत युगप्रधान स्थविरावली है, पर आचार्य मलयगिरिजी मेरुतुंगसूरि प्रभृति आचार्यों का कथन है कि नंदी की थेरावली महागिरि शाखीय देवर्द्धिगणि की गुरुपरंपरा मात्र है । इस विषय का मलयगिरिसूरि का उल्लेख इस प्रकार है
" तत्र सुहस्तिन आरभ्य सुस्थितसुप्रतिबुद्धादिक्रमेणावलिका विनिर्गता सा यथा दशा श्रुतस्कंधे तथैव द्रष्टव्या, न च तयेहाधिकारः, तस्यामावलिकायां प्रस्तुताध्ययनकारकस्य देववाचकस्याभावात्, तत इह महागिर्यावलिकायाऽधिकारः ।"
- नंदीसूत्र टीकापत्र ४९ ।
अर्थात् 'सुहस्ती से शुरू होकर सुस्थित- सुप्रतिबुद्धादि क्रम से जो परंपरा निकली है वह दशाश्रुतस्कंध (कल्प की थेरावली) में लिखी गई है, पर उस का यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि देववाचक (देवर्द्धिगणि) उस परंपरा के नहीं हैं । यहाँ अधिकार महागिरि की परंपरा का है ।'
इसी संबंध में थेरावली टीका में आचार्य मेरुतुंग इस प्रकार लिखते हैं।
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'अत्र चायं वृद्धसंप्रदायः - स्थूलभद्रस्य शिष्यद्वयम् - आर्यमहागिरिः आर्यसुहस्ती च ।
तत्र आर्यमहागिरेर्या शाखा सा मुख्या । सा चैवं स्थविरावल्यामुक्ता
सूरि वलिस्सह साई, सामज्जो संडिलो य जीयधरो । अज्जसमुद्दो मंगू, नंदिल्लो नागहत्थी य ॥
रेव सिंहो खंदिल, हिमवं नागज्जुणा य गोविंदा । सिरिभूइदिन्न - लोहिच्च - दूसगणिणो य देवड्डी !
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असौ च श्री वीरादनु सप्तविंशतमः पुरुषो देवर्द्धिगणिः सिद्धांतान् अव्यवच्छेदाय पुस्तकाधिरूढानकार्षीत् ।"
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- मेरुतुंगीया थेरावली टीका ५ ।
अर्थात्- 'इस विषय में वृद्ध संप्रदाय है कि स्थूलभद्र के दो शिष्य थे १आर्यमहागिरि और २ - आर्य सुहस्ती । उनमें आर्य महागिरि की शाखा मुख्य थी, वह शाखा स्थविरावली में इस प्रकार कहीं है - बलिसहसूरि स्वाति, श्यामाचार्य, सांडिल्य, आर्यसमुद्र, मंगू, नंदिल, नागहस्ती, रेवति, सिंह, खंदिल, हिमवान्, नागार्जुन, गोविंद भूतदिन्न, लौहित्य, गणि और देवद्धि ।
इन देवर्द्धिगणि ने जो महावीर के पीछे के स्थविरों में सत्ताइसवें पुरुष थे, आगमों
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