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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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"वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दीसइ ।"
- यह पाठांतर-उल्लेख इसी विषय का एक उदाहरण समझना चाहिए।
ऊपर कहा गया है कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने माथुरी वाचना को मुख्य मानकर उसके अनुसार सिद्धांत पुस्तकारूढ़ किया था । गणिजी ने अपने इस कार्य के साथ भगवान महावीर के निर्वाण समय का संबंध दिखाते हुए कल्पसूत्रांतर्गत महावीरचरित्र के अंत में लिखा है
"समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स नव वाससयाई वइक्वंताई, दसमस्स वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ ।"
अर्थात् 'श्रमण भगवान् महावीर को मुक्त हुए नव सदियाँ बीत गईं और दसवीं सदी का यह अस्सीवाँ वर्ष चलता है ।
इसी सूत्र के अनंतर वे लिखते हैं"वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ ।"
अर्थात् 'दूसरी वाचना में देखा जाता है, दसवीं सदी का यह तेरानबेवाँ वर्ष चलता है ।'
गणिजी के इन उल्लेखों से यह बात स्पष्ट होती है कि उनके समय में महावीर निर्वाण संवत् के विषय में दो मत थे । माथुरी वाचनानुयायी कहते यह अस्सीवाँ वर्ष है, तब वालभी वाचनावालों का कहना था, यह अस्सीवाँ नहीं, तेरानबेवाँ वर्ष है ।।
___ यह मत-भेद कब और कैसे खड़ा हुआ इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, पर प्राचीन स्थविरावलियों का सूक्ष्म पर्यालोचन करने पर इस मत-भेद का बीज हमारी समझ में आ सकता है ।
इस समय हमें दो तरह की जैन स्थविरावलियाँ मिलती हैं । पहिली
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