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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना का विच्छेद न हो जाय, इसलिये आगमों को पुस्तकों पर लिखा लिया ।' नंदी टीका के उक्त उल्लेख से हमको दो बातों की सूचना मिलती है, एक तो यह कि देवर्द्धिगणि-जिनका नामांतर देववाचक भी है - आर्यमहागिरिजी की शाखा के स्थविर थे और दूसरे, नंदी में जिस स्थविरावली का वर्णन किया है वह वस्तुतः देवर्द्धिगणि की गुरु-परंपरा है । मेरुतुंग के लेख में इन बातों के उपरांत एक यह बात भी कही गई है कि देवगिणि महावीर के पिछले स्थविरों में सत्ताइसवें पुरुष थे । १२१ अब हम इन सूचनाओं की समालोचना करके देखेंगे कि वस्तुतः उक्त सूचनाएँ कहाँ तक ठीक हैं, और इनकी सत्यता में कुछ प्रमाण भी है या नहीं ? मलयगिरिजी ने नंदी की थेरावली को किस आधार से गुरुशिष्य परंपरा माना होगा इसकी उन्होंने कुछ भी सूचना नहीं की, पर मेरुतुंग ने इस मान्यता का स्पष्ट खुलासा कर दिया है कि 'इस प्रकार का वृद्धसंप्रदाय है ।' यदि सचमुच ही मेरुतुंग के कथन के अनुसार देवर्द्धिगणि को आर्यमहागिरि की शाखा का स्थविर माननेवाला प्राचीन वृद्धसंप्रदाय था, तो मुझे कहना पड़ेगा कि इस संप्रदाय का सत्य होना कठिन है । आज पर्यंत जो जो उल्लेख हमारे दृष्टिगत हुए हैं उनसे तो यही साबित होता है कि देवर्द्धिगणि आर्यमहागिरि की शाखा के नहीं, किंतु आर्यसुहस्ती की परंपरागत जयंती शाखा के स्थविर थे, और नंदी के आदि में उन्होंने जिन जिन स्थविरों का उल्लेख किया है वे सब गुरुशिष्यपरंपरागत नहीं परंतु युगप्रधान - परंपरागत स्थविर थे । उनके भिन्न भिन्न गच्छ और गुरुओं के शिष्य होने पर भी एक दूसरे के पीछे युगप्रधान पद प्राप्त होने से देवद्धि ने उनको क्रमशः एक- आवलिबद्ध किया है । हमारी इस मान्यता के समर्थक अनेक कारणों में निम्नलिखित कारण मुख्य हैं (१) दशाश्रुतस्कंध के अष्टमाध्याय में वर्णित वीरचरित्र के अंत में वीरनिर्वाण ९८० का उल्लेख होने से मालूम होता है कि यह ग्रंथ देवर्द्धिगणि संकलित अथवा इनके द्वारा संस्कृत है, क्योंकि उक्त समय में ही गणिजी ने आगमों को पुस्तकारूढ़ किया था, इस स्थिति में इस अध्ययन में संगृहीत थेरावली भी देवर्द्धिगणि की गुरुपरंपरा ही हो सकती है । यद्यपि इस थेरावली के गद्यभाग में देवद्धि का नामनिर्देश नहीं है, पर इसी गद्य के पीछे जो इसका पद्यानुवाद दिया हुआ है उसमें "सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दवगुणेहिं संपन्ने | देविड्ढिखमासमणे, कासवगत्ते पणिवयामि ||१४|| " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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