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________________ -वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना सार किस प्रकार धारण करेंगे ? पर हाँ, श्रमण भद्रबाहु इस वक्त भी संपूर्ण चौदह पूर्व के जानकार हैं । उनके पास से हमें पूर्वश्रुत की प्राप्ति हो सकती है । परंतु वे इस वक्त बारह वर्ष का योग धारण किए हुए हैं, इस कारण से वाचना देंगे या नहीं यह संशय है । उसके बाद श्रमण संघ ने अपने दो प्रतिनिधि भद्रबाहु के पास भेजकर कहलाया कि 'हे पूज्य क्षमाश्रमण ! आप वर्तमान समय में जिन तुल्य हैं इसलिये पाटलिपुत्र में एकत्र हुआ 'महावीर का संघ' प्रार्थना करता है कि आप वर्तमान श्रमणगण को पूर्वश्रुत की वाचना दें ।' ९५ श्रमण संघ के प्रमुख स्थविरों की प्रार्थना का उत्तर देते हुए भद्रबाहु ने कहा'श्रमणो ! मैं इस समय तुमको वाचना देने में असमर्थ हूँ, और आत्मिक कार्य में लगे हुए मुझे वाचना का प्रयोजन भी क्या है ? भद्रबाहु के उत्तर से नाराज होकर स्थविरों ने कहा- क्षमाश्रमण ! इस लापर्वाही से संघ की प्रार्थना का अनादर करते हुए तुम्हें क्या दंड मिलेगा इसका विचार करो । भद्रबाहु ने कहा- 'मैं जानता हूँ संघ इस प्रकार वचन बोलनेवाले का बहिष्कार कर सकता है ।' स्थविर बोले- तुम यह जानते हुए संघ की प्रार्थना का अनादर करते हो । अब कहिए हम तुमको संघ में शामिल कैसे रख सकते हैं ? क्षमाश्रमण ! हम तुमसे विनती करते हैं पर तुम वाचना देने के लिये तैयार नहीं हो, इसलिये श्रमणसंघ आज से तुम्हारे साथ बारहों प्रकार का व्यवहार बंद करता है । भद्रबाहु यशस्वी पुरुष थे, वे अपयश से डरते थे । इससे जल्दी सँभलकर बोले- श्रमणो ! एक शर्त पर मैं वाचना दे सकता हूँ । शर्त यह है कि 'न वाचना लेनेवाले मुझे बोलावें और न मैं उनको बोलाऊँ ।' यदि यह शर्त हो सकती हो तो मैं कायोत्सर्गध्यान पूरा करने के बाद, भोजन के समय में, और मकान से बाहर जाने आने के समय में वाचना दे सकूँगा । भद्रबाहु की उक्त शर्त को मंजूर करते हुए श्रमणसंघ ने कहा- क्षमाश्रमण ! जैसा ही आप कहेंगे, जैसी ही आपकी मरजी होगी वैसा ही हम करेंगे। इस विषय में आप कुछ भी विचार न करें । इसके बाद बुद्धिशाली और ग्रहण - धारण में समर्थ ५०० साधु विद्यार्थी और प्रत्येक की वैयावृत्य - चाकरी के लिये दो दो दूसरे एवं १५०० साधु भद्रबाहु के पास दृष्टिवाद के अध्ययन के निमित्त भेजे गए । वे साधु भद्रबाहु के पास वाचना के लिये गए सही, परंतु वहाँ उन्हें अनुकूलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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