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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना नहीं थी । आचार्य के साथ बोलने की मुमानियत तो थी ही, पर इसके उपरांत उन्हें संतोषजनक वाचना भी नहीं मिलती थी । अमुक अमुक खास प्रसंगों में जब आचार्य उठते तब उनको वाचना मिलती थी; पर बुद्धिमानों को इससे संतोष नहीं होता था । इस कारण से वाचना-प्रतीच्छक धीरे धीरे वहाँ से चले गए, और जाते जाते केवल स्थूलभद्र मुनि पीछे रह गए। पद, आधा पद जो कुछ मिला उसे ही वे पढ़ते रहे पर भद्रबाहु का पीछा नहीं छोड़ा। इस प्रकार रहते हुए स्थूलभद्र को ८ वर्ष हुए तब उन्होंने आठ पूर्व का अध्ययन पूरा किया । अब भद्रबाहु की योगसाधना भी पूरी हो गई और उन्होंने पहले पहल स्थूलभद्र के साथ संभाषण करते हुए पूछा-क्यों मुनि ! तुझे भिक्षा और स्वाध्याय योग में कुछ तकलीफ तो नहीं है ? स्थूलभद्र ने कहा-नहीं भगवन् ! मुझे कोई तकलीफ नहीं है, पर मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ कि अब तक मैंने कितना सीखा और कितना शेष है? भद्रबाहु ने कहा-स्थूलभद्र ! अभी तक तुमने सर्षप मात्र ग्रहण किया है और मेरु पर्वत शेष है । भद्रबाहु के इस वचन से स्थूलभद्र बिलकुल निरुत्साह नहीं होते हुए बोले-पूज्य ! मैं अध्ययन से नहीं थका हूँ, फिर सिर्फ एक विचार अवश्य मुझे चिन्तित बनाता है कि अपनी इस अल्प जिंदगी में यह मेरुतुल्य श्रुतज्ञान मैं कैसे प्राप्त कर सकूँगा ?' स्थूलभद्र का विचार सुनकर स्थविर भद्रबाहु ने कहा-वीर स्थूलभद्र ! अब तू इस विषय में कुछ भी फिकर मत कर । अब मेरा ध्यान समाप्त हो गया है और तू बुद्धिमान है, रात दिन मैं तुझे वाचना देता रहूँगा जिससे अब तू इस दृष्टिवाद का जल्दी ही पार पायगा । स्थूलभद्र प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करने लगे और उन्होंने दशपूर्व सांगोपांग सीख लिए । एक दिन स्थूलभद्र एकांत स्थल में बैठकर ग्यारहवा पूर्व याद करते थे । उस समय उनकी ७ बहिनें भद्रबाहु के पास वंदनार्थ आईं और स्थूलभद्र को न देखकर उनके स्थान के संबंध में उन्होंने प्रश्न किया । भद्रबाहु ने स्थूलभद्र का स्थान बताया और साध्वियाँ भाई के दर्शनार्थ उस तरफ चली । स्थूलभद्र ने अपनी शक्ति का परिचय साध्वियों को कराने के इरादे से निज रूप बदलकर सिंह का रूप धारण कर लिया । साध्वियाँ वहाँ पहुँचते ही सिंह को देखकर भयभीत होकर भद्रबाहु के पास लौट आईं और भयकातर स्वर से कहने लगीं-क्षमाश्रमण ! आपके निर्दिष्ट स्थान पर स्थूलभद्र तो नहीं पर एक विकराल सिंह बैठा हुआ है ! न जाने स्थूलभद्र का क्या हुआ ! भद्रबाहु ने कहा-आर्याओ ! वह सिंह और कोई नहीं तुम्हारा भाई स्थूलभद्र ही है । आचार्य के वचन से वे फिर उस स्थान पर गईं तब उन्हें स्थूलभद्र का दर्शन हुआ । आश्चर्य का अनुभव करती हुईं साध्वियाँ उनको वंदन करके बोली-भाई ! तुझ सिंह को देखकर हम बहुत ही भयभीत हो गई थीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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