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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना पाटलिपुत्री वाचना यह वाचना वीरनिर्वाण से १६० के आसपास नंद राजा के राजत्वकाल — में सर्व जैनश्रमणसंघ के समक्ष पाटलिपुत्र नगर में हुई थी इस कारण से यह 'पाटलिपुत्री' कहलाती है । इस वाचना के समय दुर्भिक्षवश छिन्न भिन्न हुए जैन प्रवचन के ग्यारह अंग फिर से व्यवस्थित किए गए और स्थविर भद्रबाहु के पास साधुओं को भेजकर बारहवाँ अंग दृष्टिवाद प्राप्त किया गया । इस वाचना में शास्त्र मुखपाठ ही व्यवस्थित किया था या लिखा भी गया था इस बात का अभी तक निश्चय नहीं हुआ । इस पाटलिपुत्री वाचना का हमारी प्रस्तुत. गणना में विशेष उपयोग न होने पर भी यहाँ प्रसंगवश उल्लेख कर दिया है । ७१. पाटलिपुत्री वाचना का विस्तृत वर्णन तित्थोगाली पइन्नय, आवश्यक चूणि, परिशिष्ट पर्व आदि में उपलब्ध होता है। पाठकगण के ज्ञानार्थ हम तित्थोगाली की गाथाओं को सारांश के साथ देकर इस वाचना का स्पष्टीकरण करेंगे । तित्थोगाली पइन्नय के कर्ता लिखते हैं भगवान् महावीर के बाद सातवें पुरुष चौदह पूर्वधर भद्रबाहु हुए जिन्होंने बारह वर्ष तक योगमार्ग का अवलंबन किया और सूत्रार्थ की निबंधों के रूप में रचना की। उस समय मध्यदेश में प्रबल 'अनावृष्टि' हुई । इस दुर्भिक्ष के कारण साधु वहाँ से दूसरे देशों में चले गए । कोई वैताढ्य पर्वत की गुफाओं में, कोई नदियों के तटों पर और कितनेक समुद्र के तट पर जाकर अपना निरवद्य जीवन बिताने लगे । तब कतिपय साधुओं ने, जो विराधनाभीरु थे, अपनी खुशी से अन्न जल का त्याग कर दिया। बहुत वर्षों के बाद जब सुभिक्ष हुआ तब परलोक जाते जाते जो बचे थे वे सब साधु फिर मगध देश में आ पहुँचे और चिरकाल से एक दूसरे को देख कर वे अपना नया अवतार ही मानने लगे ।। तब वे साधु एक दूसरे को पूछने लगे कि किसको क्या याद है और क्या नहीं ? इस प्रकार पूछते हुए उन्होंने ग्यारह अंग संकलित कर लिए, पर दृष्टिवाद अंग का जाननेवाला वहाँ कोई नहीं रहा । वे कहने लगे-पूर्वश्रुत के बगैर हम जिनप्रवचन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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