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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
वाचनांतर का मतभेद
पूर्वोक्त गणनापद्धतियों से यह तो निश्चित है कि शक संवत्सर के प्रारंभ तक वीर निर्वाण की संवत्सरगणना में किसी तरह का मतभेद नहीं था, पर बाद में भिन्न भिन्न वाचनाओं के कारण निर्वाण संवत्सरगणना में कुछ मतभेद अवश्य हो गया था कि जिसका उल्लेख देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने कल्पसूत्रांतर्गत वीरचरित्र के अंत में—
'वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दीसइ" - इस सूत्र में किया है ।
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इस वाचनाविषयक मतभेद को समझने के लिये पहले हमें वाचनाओं का इतिहास समझ लेना बहुत जरूरी है ।
वाचना
वाचना का सामान्य अर्थ है " पढ़ाना" । आचार्य अपने शिष्यों को जो सूत्र और अर्थ पढ़ाते हैं उसे जैनपरिभाषा में " वाचना" कहते हैं । प्रत्येक श्रुतधर आचार्य अपने शिष्यों को वाचना देते हैं और वह वाचना उन्हीं आचार्य की कही जाती है । ऐसी वाचनाएँ महावीर की परंपरा में सैकड़ों हो गई है, पर उन सामान्य वाचनाओं के वर्णन का यह स्थल नहीं है । यहाँ पर उन्हीं विशेष वाचनाओं का उल्लेख उपादेय है, जो जैन संघ में एक विशिष्ट घटना की भाँति प्रसिद्ध है, और जिनसे हमारी प्रस्तुत कालगणना का घनिष्ठ संबंध है । ऐसी विशिष्ट वाचनाएँ भगवान् महावीर के निर्वाण से एक हजार वर्ष के भीतर भीतर तीन हमारे जानने में आई हैं ।
१. पाटलिपुत्री - स्थविर भद्रबाहुकालीन ।
२. माथुरी - स्थविर स्कन्दिल कृत ।
३. वालभी - वाचक नागार्जुन कृत ।
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