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________________ धर्मरसायन -58 अनगारों के लिए सर्वदा सब प्रकार से आचरणीय अट्ठाईस (18+5+5) मूलगुण तथा अनेक उत्तरगुण बतलाये गये हैं। इस प्रकार का धर्म ही अनगार धर्म है। जे सुद्धवीरपुरिसा जाइजरामरणदुक्खणिव्विण्णा । पालंति सुसुद्धभावा ते मूलगुणा य परिसेसा ।।184|| ये शुद्धवीरपुरुषा जातिजरामरणदुःखनिर्वियाः । पालयन्तिसुशुद्धभावान्तेमूलगुणान्चपरिशेषान्।। 184 ॥ जो जन्म, जरा तथा मरण के दुःखों से खिन्न शुद्धात्मा वीर पुरुष हैं, वे अत्यन्तशुद्ध भावों से सम्पूर्ण मूलगुणों का पालन करते हैं। इच्चेयावि सव्वे पालंति सविरियं अगृहंता । उवलुद्धयावधीरा संसारदुक्खक्खयेद्वार ||185।। इत्यादिकानपि सर्वान् पालयन्ति स्ववीर्यम् अगृहमानाः। अपलुब्धकाः धीराः संसारदुःखक्षयेच्छया ।।185|| लोभी पुरुषों से दूर रहने वाले ऐसे धीर पुरुष, अपने वीर्य (शक्ति) को न छिपाते हुए, संसारिक दुःख का नाश करने की इच्छा से पूर्वोक्त समस्त गुणों का पालन करते हैं। हेमंते धिदिमंता लिणिदलविणासियं महासीयं । संसार दुक्खभीए वि सहति चडंति य सीयं ।।1861 हेमन्ते धृतिमन्तो नलिनीदलविनाशितं महाशीतम् । संसारदुःखभयादपिसहन्तेचण्डमितिचशीतम्।।186 ॥ संसार के जन्म-मरणरूपी दुःखों के भय से वे (धीर एवं वीर पुरुष) हेमन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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