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तत्थ वि पावइ दुक्खं डज्झतो पज्जलंतसलिलेण । छोडीजंतसरीरो तिक्खाहिँ सिलाहिं घोराहिं ॥41॥
• धर्मरसायन
तत्रापि प्राप्नोति दुःखं दहन् प्रज्वलितसलिलेन । स्पृष्टशरीरः तीक्ष्णाभिः शिलाभिः घोराभिः ||41||
वहाँ भी अत्यन्त तीक्ष्ण शिलाएँ उसके शरीर का स्पर्श करती हैं तथा खौलते हुए जल से जलता हुआ वह (पापी) दुःख प्राप्त करता है।
सो एवं बुहुतो कह वि किलेसेहि तत्थ णीसरए । णीसरिओ विह संतो धरंति बंधंति णेरड्या ||42||
स एवं ब्रुडन् कथमपि क्लेशैः ततो निःसरति । निःसृतमपि हि सन्तं धरन्ति बध्नन्ति नारकाः ॥42॥
इस प्रकार डूबता हुआ वह वहाँ से अर्थात् वैतरणी के जल से किसी तरह बाहर निकलता है। किन्तु उसे बचकर निकलता हुआ देखकर नरकवासी पुनः पकड़कर बाँध लेते हैं ।
जस्स रडंतस्स पुणो उपहार णिक्खंति सिगदाए । उद्धरिऊण सदेहं णासइ तं दुक्खमसहंतो ॥43॥
तं रुदन्तं पुनः उष्णायां निखनंन्ति सिकतायाम् । उत्थाय स्वदेहं नाशयति तं दुःखमसहमान: ||43||
फिर रोते हुए उस (पापी) को वे नरकवासी गर्म रेत (बालू) में गाड़ देते हैं। जहाँ दुःख को सहन न कर पाता हुआ वह अपने शरीर को रेत में से निकालकर भागता है ।
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