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धर्मरसायन
दम्भ्यते यत्र जनः पीयते मद्यं च यत्र बहुदोषम् । इच्छन्ति तमपि धर्मं केचिच्च अज्ञानिनः पुरुषाः ||17||
जहाँ जीवों का वध होता है; जहाँ असत्य वचन बोला जाता है; जहाँ पराये धन का हरण होता है और जहाँ परायी स्त्री का सेवन किया जाता है; जहाँ धर्म में अनेक प्रकार के आरम्भ हैं अर्थात् हिंसक योजनाएँ बनायी जाती हैं, परिग्रह का सञ्चय किया जाता है; जहाँ सन्तोष वर्जित है और गूलर आदि पाँच प्रकार के फल, मधु एवं मांस का भक्षण किया जाता है; जिस धर्म में लोगों को धोखा दिया जाता है और जिसमें बहुत-से दोषों वाली मदिरा पी जाती है - ऐसे (तथाकथित) धर्म को भी कुछ अज्ञानी पुरुष चाहते हैं ।
जइ एरिसो वि धम्मो तो पुण सो केरिसो हवे पावो । जइ एरिसेण सग्गो तो णरयं गम्मए केण ॥18॥
यद्येतादृशोऽपि धर्मस्तर्हि पुनः तत्कीदृशं भवेत्पापम् । यद्येतादृशेन स्वर्गः तर्हि नरके गम्यते केन ||18||
यदि धर्म ऐसा भी होता है तो फिर पाप कैसा होता है ? यदि इस प्रकार के धर्म से स्वर्ग प्राप्त होता है तो नरक किस प्रकार के धर्म से प्राप्त होता है ?
जो एरिसियं धम्मं किज्जइ इच्छेइ सोक्खं भुंजेउं । वावित्ता बितरुं सो इच्छइ अंबफल्लाई ॥19॥
य एतादृशं धर्मं करोति इच्छति सौख्यम् भोक्तुम् । उप्त्वा निम्बत स इच्छति आम्रफलानि ||19||
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मनुष्य इस प्रकार के (तथाकथित) धर्म को करता है तथा सुख भोगना चाहता है, वह नीमवृक्ष का बीज बोकर आम के फल खाना चाहता है ।
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