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________________ - धर्मरसायन जो धम्मंण करंतो इच्छइ सुक्खाईकोई णिब्बुद्धी। सो पीलऊण सिकयं इच्छइ तिल्लं णरो मूठो ।।7।। यो धर्ममकुर्वन् इच्छति सुखानि कश्चित् निर्बुद्धिः। स पीलयित्वा सिकतामिच्छति तैलं नरो मूढः ।।7।। जो कोई मूर्ख व्यक्ति धर्मकार्य किये बिना ही सुखप्राप्ति की इच्छा करता है। वह मूढ मनुष्य बालू को पेरकर (निचोड़कर) तेल प्राप्त करना चाहता है। सव्वो विजणोधम्मं घोसइ'णयकोइजाणइ अहम्मा धम्माधम्म विसेसं णाऊण णरेण घेतव्वं ।।8।। सर्वोऽपिजनः धर्म घोषयतिन चकश्चिज्जानाति अधर्मम्। धर्माधर्मविशेषं ज्ञात्वा नरेण गृहीतव्यम् ||४|| सभी लोगधर्म की घोषणा करते हैं अर्थात्धर्म की बात करते हैं, अधर्म को तो कोई जानता ही नहीं है। अतः धर्म और अधर्म के भेद को जानकर ही मनुष्य को धर्म का ग्रहण करना चाहिए। खीराइं जहा लोए सरिसाइं हवंति वण्णणामेण । रसभेएण य ताई वि णाणागुणदोसजुत्ताई ॥७॥ क्षीराणि यथा लोके सदृशानि भवन्ति वर्णनामभ्याम् ॥ रसभेदेन च तान्यपि नानागुणदोषयुक्तानि ||७|| जैसे संसार में पाये जाने वाले सभी प्रकार के दूध रंग अर्थात् सफेदी और नाम (की दृष्टि) से एक जैसे होते हैं । किन्तु यह तोस्वाद से ही ज्ञात होता है कि उनमें से कौन-सा दूधगुणयुक्त है तथा कौन-सा दोषयुक्त। 1. घोसय णइ 2. धम्मधम्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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