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________________ 70 जलचन्दनतणडुलपुष्पादिक मविकलतया नयाम जिनमभ्यर्च्य निजं जनुरेतत्साफल्यं प्रणयाम ॥स्थायी ॥२॥ श्रीजिनगन्धोदकं समन्ताच्छिरसा स्वयं वहाम 1 कलिमलधावनमतिशयपावनमन्यत्किं निगदाम ॥ स्थायी ॥३॥ उत्तमाङ्ग तिमि सुदेवपदयोः सुदेवपदयोः स्वस्य स्वयं उत्तमपदसम्प्राप्तिमितीद स्फुटमेव प्रवदाम किमति भणित्वा सद्गुणगानं गुणवत्तयां भूरानन्दस्यात्र नियमतश्चैवं वयं भवाम ।। स्थायी लसाम 1 11411 आओ भाइयो आओ, हम लोग सब मिलकर श्री जिनभगवान् की पूजन को चलें और हमारे कर्त्तव्य का स्मरण कराने वाली श्रीजिनमुद्रा को अपने नयनों से अवलोकन करें। जल, चन्दन, तन्दुल, पुष्प आदि पूजन सामग्री को शोध - वीनकर अपने साथ ले चलें और श्रीजिनदेव की पूजन करके अपने इस मनुष्य जन्म को सफल बनावें । पूजन से पूर्व जिनभगवान् का अभिषेक करके पाप मल धोने वाले और अतिशय पवित्र इस श्रीजिन-गन्धोदक को हम सब स्वयं ही भक्ति भाव से अपने शिर पर धारण करें। और अधिक हम क्या कहें, उत्तम - शिव पद की प्राप्ति के लिए हम लोग अपने उत्तमाङ्ग (मस्तक) को श्रीजिनदेव के चरण-कमलों में रक्खे- उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करें, यही हमारा निवेदन है। यथाशक्ति भगवान् के सद्गुणों का गान करके हम भी गुणीजनों में गणना के योग्य बन जावें । भूरामल का यही कहना है कि नियम पूर्वक इस मार्ग से ही भूतल पर आनन्द - प्रसार करके हम लोग आनन्द प्राप्त कर सकते हैं ॥१-५॥ Jain Education International * रसिकनामरागः भो सखि जिनवरमुद्रां पश्य नय द्दशमाशु सफलतां स्वस्य ॥ स्थायी ॥ राग - रोषरहिता सती सा छविरविरुद्धा यस्य, तुला विलायां किं भवेदपि इगपि न सुलभा तस्य ॥ नयद्दश ॥१॥ पुरा तु राज्यमितो भुवः पुनरञ्चति चैक्यं स्वस्य I योग - भोगयोरन्तर खलु नासा दशा समस्य ।। नयद्दशमाशु ॥२॥ कल इति कल एवाऽऽगतो वा पल्यङ्कासनमस्य बलमखिलं निष्फलं च तच्चेदात्मबलं नहि यस्य ॥ नय द्दशमाशु ॥ ३ ॥ 1 दधाम 1 ॥स्थायी ॥४॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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