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________________ 41 - - - - - - - - - - - - - - अस्याः क आस्तां प्रियएवमर्थः वक्तुं भवेद्योगिवरः समर्थः । भाग्येन तेनास्तु समागमोऽपि साकं किलाकं यदि नोऽघलोपि ॥२२॥ इस स्वप्रावली का क्या प्रिय अर्थ होगा, इसे कहने के लिए तो कोई श्रेष्ठ योगिराज ही समर्थ हो सकते हैं. भाग्य से ही ऐसे योगियों के साथ समागम संभव है । हमारे यदि पापों का लोप हो रहा है, तो उनका भी समागम हो ही जायेगा ॥२२॥ संस्मर्यतां श्रीजिनराजनाम तदेव नश्चेच्छितपूर्तिधाम । पापापहारीति वयं वदामः सम्विघबाधामपि संहरामः ॥२३॥ अतएव श्री जिनराज का नाम ही हमें स्मरण करना चाहिए, वही पापों का अपहारक, सब विघ्न बाधाओं का संहारक और इच्छित अर्थ का पूरक है, ऐसा हमारा कहना है ॥२३॥ प्रत्यावजन्तामथ जम्पती तौ तदेकदेशे नियतं प्रतीतौ ।। मुनिं पुनर्धर्ममिवात्तमूर्ति सतां समन्तात्कृतशर्मपूर्तिम् ॥२४॥ (ऐसा विचार कर सेठ और सेठानी दोनों ने जिनालय में जाकर भगवान की पूजा की ।) वहीं उन्हें ज्ञात हुआ कि इसी जिनालय के एक स्थान पर मुनिराज विराजमान हैं। उन दोनों ने जाकर धर्म की साक्षात् मूर्ति को धारण करने वाले, तथा सजनों के लिए सुख-सम्पदा की पूर्ति करने वाले ऐसे योगिराज के दर्शन किये ॥२४॥ केशान्धकारीह शिरस्तिरोऽभूद दृष्ट्वा मुनीन्दुं कमलश्रियो भूः । करद्वयं कुड्मलतामयासीत्तयोर्जजृम्भे मुदपां सुराशिः ॥२५।। मुनिराज रूप चन्द्रमा को देखकर सेठ और सेठानी का आनन्द रूप समुद्र उमड़ पड़ा, केशरुप अन्धकार को धारण करने वाला उनका मस्तक झुक गया, उनका मुख कमल के समान विकसित हो गया और दोनों हस्त कमल मुकुलित होगये। भावार्थ - भक्ति और आनन्द से गद्-गद् होकर के अपने हाथों को जोड़कर उन्होंने मुनिराज को नमस्कार किया ॥२५॥ कृतापराधाविव बद्धहस्तौ जगद्धितेच्छोद्रुर्तमग्रतस्तौ ।। मिथोऽथ तत्प्रेमसमिच्छु के षु संक्लेशकृत्वादतिकौतुकेषु ॥२६॥ जगत् के प्राणिमात्र का हित चाहने वाले उन मुनिराज के आगे हाथ जोड़कर बैठे हुये वे सेठ और सेठानी ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों परस्पर प्रेम के इच्छुक स्त्री-पुरुषों में संक्लेश भाव उत्पन्न कर देने के कारण जिन्होंने अपराध किया है और जिन्हें हाथ बांधकर लाया गया है, ऐसे रति और कामदेव ही बैठे हों ॥२६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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