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नयन्तमन्तं निखिलोत्करं तं समुज्ज्वलज्ज्वालतया लसन्तम् । अपश्यमस्यन्तमितो हुतं तत्स्फुलिङ्गजालं मुहुरुद्वमन्तम ॥१७॥
हे नाथ, चौथे स्वप्न में मैंने ऐसी निधूर्म अग्नि को देखा जो कि समीपवर्ती इन्धन को जला रही थी । जिसमें से प्रकाशमान बड़ी-बड़ी ज्वालाएं चारों ओर से निकल रही थीं, जो हवन की हुई सामग्री को भस्मसात् कर रही थी और जिसमें से बार- बार स्फुलिंग - जाल (अग्नि-कण ) निकलकर सर्व ओर फैल रहे थे ॥१७॥
विहाय साऽरं विहरन्तमेव विमानमानन्दकरं च देव ।
दृष्ट वा प्रबुद्धेः सुखसम्पदेवं श्रुतं तदेतद्भवतान्मुदे वाः ॥ १८॥
हे देव, पांचवे स्वप्न में मैंने आकाश में विहार करते हुए आनन्दकारी विमान को देखा। इन सुखसम्पत्तिशाली स्वप्नों को देखकर मैं प्रबुद्द (जागृत) हो गई। मुझे इनके देखने से अत्यन्त हर्ष हुआ है और इनके सुनने से आपकी भी प्रमोद होवे ॥१८॥
यदादिद्दष्टाः समद्दष्ट सारास्तदादिसृष्टा हृदि मुन्ममारात् । स्पष्टं सुधासिक्त मिवाङ्ग मेतदुदञ्चन प्रायमुदीक्ष्यतेऽतः ॥१९॥
हे स्वामिन्, जबसे मैंने उत्तम पुण्य के सारभूत इन स्वप्नों को देखा है, तभी से मेरे हृदय में असीम आनन्द प्राप्त हो रहा है और मेरा यह सर्वाङ्ग अमृत से सींचे गये के समान रोमाञ्चों को धारण किये हुये स्पष्ट हीं दिखाई दे रहा है ॥१९॥
इत्येवमुक्त्वा स्मरवैजयन्त्यां करौ समायुज्य तमानमन्त्याम् । किलांशिके वाश्विति तेन मुक्ता महाशयेनापि सुवृत्तमुक्ताः ॥२०॥
इस प्रकार कहकर स्मर - वैजयन्ती ( काल - पताका) उस सेठानी के हाथ जोड़कर नमस्कार करने पर महानुभाव वृषभदास सेठ ने भी उत्तम गोलाकार वाले मोतियों से युक्त माला के समान सुन्दर पद्यों . से युक्त आर्शीवाद रुप वचनमाला उसे समर्पण की। अर्थात् उत्तर देना प्रारम्भ किया ॥२०॥
वार्ताऽप्यद्दष्टश्रु तपूर्विका वः यस्या न केनापि रहस्यभावः । सम्पादयत्यत्र च कौतुकं नः करोत्यनूढा स्मयकौ तु कं न ॥२१॥
सेठ बोला प्रिये, तुम्हारे द्वारा देखी हुई यह स्वप्नों की बात तो अद्दष्ट और अश्रुत पूर्व है, न मैंने कभी ऐसी स्वप्रावली देखी है और न कभी किसी के द्वारा मेरे सुनने में ही आई है। यह स्वप्रावली मुझे भी कौतुक उत्पन्न कर रही है। अविवाहित युवती पृथ्वी पर किसके कौतुक उत्पन्न नहीं करती है ? इस स्वप्रावली का रहस्य भाव तो किसी को भी ज्ञात नहीं है, फिर तुम्हें क्या बतलाऊं ॥२१॥
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