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________________ 34 - - - - - - - - - - - - - - - चापलतेव च सुवंशजाता गुणयुक्ताऽपि वकि मख्याता। सायक समवायेन परेषां हृदि प्रवेशोचिता विशेषात् ॥४२॥ वह रानी ठीक धनुष लताका अनुकरण करती थी। जैसे धनुर्लता उत्तम वंश (वांस) से निर्मित होती है, उसी प्रकार यह रानी भी उच्च क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुई थी। जैसे धनुष गुण अर्थात् डोरो से संयुक्त रहता है, उसी प्रकार यह रानी भी सौन्दर्य आदि गुणों से संयुक्त थी। जैसे धनुर्लता वक्रता (तिरछापन) को धारण करती है, उसी प्रकार यह रानी भी मन में कुटिलता को धारण करती थी। जैसे धनुर्लता अपने द्वारा फेंके गये बाणों से दूसरे लोगों के हृदय में प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार यह रानी भी अपने कृत्रिम हाव-भावरूप बाणों से दूसरे लोगों के हृदय में प्रवेश कर जाती थी, अर्थात् उन्हें अपने वश में कर लेती थी ॥४२॥ निम्नगेव सरसत्वमुपेता तडिदिव चपलतोपहितचेता। दीपशिखेव यु तिमत्यासीद्राज्ञे झष-चातक-शलभाशीः ॥४३॥ वह रानी निम्नगा (नीचे की और बहने वाली नदी) के समान सरसता से संयुक्त थी, बिजली के समान चपलता से युक्त चित्तवाली थी, और दीपशिखा के समान कान्तिवाली थी। उसे देखकर राजा की चेष्ठा मीन, चातक और शलभ के समान हो जाती थी ॥४३॥ ___ भावार्थ - जैसे मछली बहते हुए जल में कल्लोल करती हुई आनन्दित होती है, चातक पक्षी चमकती बिजली को देखकर पानी बरसने के आसार से हर्षित होता है और शलभ (पंतगा) दीपशिखा को देखकर प्रमोद को प्राप्त होता है, उसी प्रकार धात्रीवाहन राजा भी अपनी अभयमती रानी की सरसता को देखकर मीन के समान, बिजली सी चपलता को देखकर चातक के समान और शारीरिककान्ति को देखकर पतंगा के समान अत्यन्त आनन्द को प्राप्त था. . निशाशशाङ्क इवायमिहाऽऽसीत् परिकलितः किल यशसां राशिः। यतः समुद्रोद्धारकारकस्तामसवृत्तिकयाऽभिसारकः ॥४४॥ जिस प्रकार अपने उदय से समुद्र को उद्वेलित करने वाला प्रकाश युक्त चन्द्रमा अन्धकारमयी रात्रि से भी सम्बन्ध रखता है और उसके साथ अभिसार करता है, उसी प्रकार सुवर्णादिकी मुद्राओं (सिक्कों) का उद्धार करने वाला -- सिक्कों का चलाने वाला और यश का भण्डार भी यह धात्रीवाहन राजा अपनी भोगमयी तामसी प्रवृत्ति द्वारा रानी अभयमती के साथ निरन्तर अभिसरण करता रहता था ॥४४॥ सार्धसहस्त्रद्वयात्तु हायनानामिहाद्यतः। बभूवायं महाराजो महावीर प्रभोः क्षणे ॥४५॥ चम्पापुरी का वह धात्रीवाहन नाम का महाराज आज से अढ़ाई हजार वर्षों के पहिले भगवान् महावीर स्वामी के समय में हुआ है ॥ ४५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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