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________________ - 29 -- में चम्पापुरी नाम की नगरी का सर्व प्रकार से उन्नत होने के कारण उच्च स्थान था। भावार्थ- लक्ष्मी के निधानभूत उस अङ्गदेश में चम्पापुरी नगरी थी, जहां पर उत्तम जनों का निवास था ॥२४॥ शालेन बद्धं च विशालमिष्ट-खलक्षणं सत्परिखोपविष्टम्। बभौ पुरं पूर्वमपूर्वमेतद्विचित्रभावेन विलोक्यतेऽतः ॥२५॥ आकाश को स्पर्श करने वाले विशाल शाल (कोट) से वह चम्पापुर नगर चारों ओर से वेष्टित था और उसको सर्व ओर से घेरकर जल से भरी गहरी उत्तम खाई भी अवस्थित थी। इस प्रकार वह पुरी उस समय अपूर्व रूप को धारण करके शोभा को प्राप्त थी और इसीलिए वह लोगों के द्वारा आश्चर्ययुक्त विचित्र भाव से देखी जाती थी ॥२५॥ यस्मिन् पुमांसः सुरसार्थलीलाः सुरीतिसूक्ता ललनाः सुशीलाः। पुरं बृहत्सौधसमूहमान्यं तत्स्वर्गतो नान्यदियाद्वदान्यः ॥२६॥ उस नगर में पुरुष सुर-सार्थ अर्थात् देव-समूह के समान लीला-विलास करने वाले थे, अथवा सुरस अर्थ (धन-सम्पत्ति) का भली भांति उपभोग करने वाले थे. वहां की ललनाएं देवियों के समान सुशील और सुन्दर मिष्ट भाषिणी थी। वहां के विशाल प्रासाद सौधसमूह से मान्य थे। स्वर्ग के भवन तो सुधा (अमृत) से परिपूर्ण होते हैं और इस नगर के भवन सुधा (चूना) से बने हुए थे। इस प्रकार विवेकी लोग उस नगर को सम्पूर्ण साद्दश्य होने के कारण स्वर्ग से भिन्न और कुछ नहीं मानते थेअर्थात् उसे स्वर्ग ही समझते थे ॥२६॥ सुरालयं तावदतीत्य दूरात्पुराद् द्विजिह्वाधिपतेश्च शूराः । समेत्य सत्सौधसमूहयुक्ते सन्तो वसन्तोऽकुटिलत्वसूक्ते ॥२७॥ सुरालय को तथा द्विजिह्वों (सों के) के अधिपति शेषनाग के निवास नागलोक को भी दूर से ही छोड़कर शूरवीर पुण्याधिकारी महापुरुष उत्तम सौध-समूह से युक्त उस कुटिलता-रहित सरल चम्पापुर में आकर बसते थे ॥२७॥ भावार्थ - इस श्लोक में पठित 'सुरलाय' द्विजिह्व और सौधपद द्वयर्थक हैं। जिस प्रकार बुद्धिमान् सज्जन पुरुष सुरा (मदिराः) के आलय (भवन) को छोड़कर सुधा (अमृत) मय स्थान में जाना पसन्द करते हैं, उसी प्रकार पुण्याधिकारी देव लोग भी अपने सुर + आलय स्वर्ग को छोड़ कर उस नगर में जन्म लेते थे । इसी प्रकार जैसे सन्त पुरुष कुटिल स्थान को छोड़कर सरल स्थान का आश्रय लेते हैं ठीक इसी प्रकार से नागकुमार जाति के देव भी अपने कुटिल नागलोक को छोड़कर उस नगर में जन्म लेते थे। कवि के कहने का भाव यह है कि वहां देवलोक या नागलोक से आनेवाले जीव ही जन्मलेते थे, नरक या तिर्यंच गति से आने वाले नहीं, क्योंकि इन दोनों गतियों से आनेवाले जीव क्रूर और कुटिल परिणामी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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