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उस अंग देश के गांव पञ्चाङ्ग से प्रतीत होते थे। जैसे ज्योतिषियों का पञ्चाङ्ग तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण इन पांच बातों से युक्त होता है, उसी प्रकार उस देश के ग्राम वासी लोग सादा भोजन, सादा पहिनावा, पशु-पालन, कृषि-करण सादा रहन-सहन इन पांच बातों को सदा व्यवहार में लाते थे। उन ग्रामों में चारों ओर गोचर भूमि थी, जो कि पञ्चाङ्ग के ग्रह गोचर का स्मरण कराती थी। वहां के गांवों के प्रधान पुरुष गायों के बछड़ों से बड़ा स्नेह रखते थे, क्योंकि उनके द्वारा उत्पन्न की हुई अपार धान्य राशि उन्हें प्राप्त होती थी ॥२१॥
उद्योतयन्तोऽपि परार्थमन्तर्घोषा बहुव्रीहिमया लसन्तः । यतित्वभञ्चन्त्यविकल्पभावान्नृपा इवामी महिषीश्वरा वा ॥२२॥
उस देश में जो गुवालों की बसतियां हैं, उसमें बसने वाले गुवाले लोग अपने अन्तरङ्ग में परोपकार की भावना लिए रहते थे, जैसे कि बहुव्रीहि समास अपने मुख्य अर्थ को छोड़कर दूसरे ही अर्थ को प्रकट करता है, एवं उन गुवालों के पास अनेक प्रकार के धान्यों का विशाल संग्रह था। तथा उस देश के गुवाले अविकल्पभाव से यतिपने को धारण करते थे। साधु संकल्प - विकल्प भावों से रहित होता है और वे गुवाले अवि अर्थात् भेड़ों के समूह वाले थे। तथा वे गुवाले राजाओं के समान महिषीश्वर थे। राजा तो महिषी (पट्टरानी) का स्वामी होता है और वे गुवाले महिषी अर्थात् भैंसों के स्वामी थे। भावार्थ उस देश के हर गांव में गुवाले रहते थे, जिससे कि सारे देश में दूध-दही और घी की कहीं कोई कमी नहीं थी ॥२२॥
अनीतिमत्यत्र जनः सुनीतिस्तया भयाढ्यो न कृतोऽपि भीतिः । 'विसर्गमात्मश्रिय ईहमानः स साधुसंसर्गविधानिधानः
॥२३॥
कवि विरोधालङ्कार- पूर्वक उस देश का वर्णन करते हैं- अनीतिवाले उस देश में सभी जन सुनीति वाले थे और भयाढ्य होते हुए भी उन्हें किसी से भी भय नहीं था। विसर्ग को ही अर्थात् खोटे धंधे को ही अपनी लक्ष्मी बढ़ाने वाला समझते थे, फिर भी वे अच्छे धंधों के करने वालों में प्रधान थे. ये सभी बातें परस्पर विरुद्ध हैं, अतः विरोध का परिहार इस प्रकार करना चाहिए कि ईति (दुर्भिक्ष आदि) से रहित उस देश में सभी सुन्दर नीति का आचरण करते थे और भा अर्थात् कान्ति से युक्त होते हुए भी वे किसी से भयभीत नहीं थे। वे अपनी चंचल लक्ष्मी का विसर्ग अर्थात् त्याग या दान करना ही उसका सच्चा उपयोग मानते थे और सदा साधु जनों के संसर्ग करने में अग्रणी रहते थे । ॥२३॥
भुवस्तु तस्मिंल्लपनोपमाने समुन्नतं चम्पापुरी नाम जनाश्रयं तं श्रियो निधाने
इस प्रकार सर्व सुख-साधनों से सम्पन्न वह अङ्गदेश इस पृथ्वी रूपी स्त्री के मुख के समान प्रतीत होता था और जिस प्रकार मुख पर नाक का एक समुन्नत स्थान होता है, उसी प्रकार उस अङ्गदेश
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नक्र मिवानुजाने । सुतरां लसन्तम् ॥२४॥
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