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________________ 16 क्षोभित हो गये, पर सुदर्शन का एक लोम भी नहीं हिला । धन्य है ऐसी द्दढ़ता को प्रस्तुत ग्रन्थकार ने उस व्यन्तरी के उपसर्ग में मात्र इतना ही लिखा है कि उस उपसर्ग के चिन्तवन करने मात्र से हृदय में कम्पन होने लगता है। पर यह नहीं बताया कि यह उपसर्ग कितने दिन तक होता रहा । (२२) सुदर्शन मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। अवधिज्ञान से सुदर्शन मुनिराज के केवल ज्ञान उत्पन्न होने की बात जान कर उसने सब देवी-देवताओं को साथ लेकर और ऐरावत हाथी पर बैठकर मध्य लोक को प्रस्थान किया। उस समय ऐरावत हाथी के एक लाख योजन विस्तार की और उसके शत मुख दन्तों पर सरोवर, कमल और उन पर अप्सराओं आदि के नृत्य का ठीक वैसा ही वर्णन किया है - जैसा कि तीर्थंकरों के जन्माभिषेक को आते समय जिनसेनादि अन्य आचार्यों ने किया है। उक्त विस्तृत लक्ष योजन वाले ऐरावत हाथी पर आते हुए जब इन्द्र भरत क्षेत्र के समीप पहुँचा, तो उसने यह देख कर कि यह क्षेत्र तो बहुत छोटा है अपने ऐरावत हाथी के विस्तार को संकुचित कर लिया । नयनन्दि ने लिखा है जबूदीव तत्थुवलग्गवि जेतिओ वित्थह आए मणे तेत्तिओ किउ अणुराए करिंदे । सुरिंदो 11 ( ब्यावर प्रति पत्र ८५ ) ऐरावत हाथी के शरीर-संवरण की बात दिगम्बर ग्रन्थों में नयनन्दि के द्वारा लिखी हुई प्रथम बार ही देखने में आई है, हालांकि यह स्वाभाविक बात है, अन्यथा लाख योजन का हाथी जरा से भरत में कैसे आ सकता है? श्वेताम्बर सम्मत जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है कि जब इन्द्र स्वर्ग से चलता है, तब हाथी का विस्तार लाख योजन का ही होता है। पर आते हुए जब नन्दीश्वर द्वीप से इधर जम्बूद्वीप की ओर पहुँचता है तब उसके संकेत से हाथी के शरीर का विस्तार संकुचित हो जाता है। Jain Education International संवरि वुच्चइ एम (२३) नयनन्दि और सकलकीर्ति दोनों ने ही हरिषेण के समान सुदर्शन केवली के धर्मोपदेश और विहार का वर्णन किया है। (२४) दोनों ने हरिषेण के समान गन्धकुटी में जाकर देवदत्ता वेश्या आदि के व्रत ग्रहण की चर्चा की है | (२५) नयनन्दि और सकलकीर्ति ने सुदर्शन का निर्वाण पौष सुदी पंचमी सोमवार के दिन बतलाया है। नयनन्दि के पश्चात् सुदर्शन का आख्यान ब्रह्म नेमिदत्त विरचित आराधना कथा कोश में पाया जाता है। पर इसमें कथानक अति संक्षेप से दिया है। इसमें न कपिला के छल-प्रपंच का उल्लेख है, न देवदत्ता वेश्या और व्यन्तरी के ही उपसर्ग का उल्लेख है। केवल एक ही बात उल्लेखनीय है कि गुवाला ने शाम को वन से घर जाते हुए एक साधु को खुले मैदान में शिला पर अवस्थित देखा । घर पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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