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काव्य के शरीर का निर्माण शब्द और अर्थ से होता है। शब्दालङ्कार शब्द को और अर्थालङ्कार अर्थ को भूषित करते हैं।
__ प्रस्तुत काव्य में दोनों प्रकार के अलङ्कार आदि से अन्त तक विद्यमान हैं। काव्य की आत्मा रस होता है जिसे गुण अलंकृत करते हैं। प्रस्तुत काव्य में शान्त रस प्रधान है जो प्रसाद गुण से विभूषित है। नैषध और धर्मशर्माभ्युदय की भांति इसमें वैदर्भी रीति है। निष्कर्ष यह कि एक सत्काव्य में जो विशेषताएं होनी चाहिये वे सब इसमें हैं ।
वाग्भट ने अपने अलङ्कार ग्रन्थ (१,८) में काव्य की चारुता के तीन हेतु बतलाये हैं - (१) किसी वर्ण को गुरु बनाने के लिए उसके आगे संयुक्त वर्णों का विन्यास (२) विसर्गों को लुप्त न करना और (३) विसन्धि का अभाव (अ) अश्लीलता या कर्णकटुता आदि दोषों की उत्पादक यण आदि सन्धियों का परित्याग (ब) तथा सन्धि-रहित पदों का प्रयोग।
प्रस्तुत काव्य में उन तीनों हेतु विद्यमान हैं। जैसे१,३१ जिनालयाः पर्वततुल्यगाथाः समग्रभूसंभवदेणनाथाः । श्रृङ्गाग्रसंलग्नपयोदखण्डाः
श्रीरोदसीदर्शितमानदण्डाः ॥ ___यहां सात लघु वर्गों को सयुक्त वर्ण उनके आगे रख कर गुरु बनाया गया है। इस श्लोक में कुल मिलाकर पांच पद हैं - तीन ऊपर और दो नीचे, इन सभी के आगे विसर्ग रखें हुये हैं - उनका लोप नहीं हुआ और विरुप सन्धि या सन्धि का अभाव भी नहीं है।
अन्य शास्त्र अपने-अपने विषयों पर प्रकाश डालते हैं पर सत्काव्य अनेकानेक विषयों पर। सुदर्शनोदय में उदात्तचरित सुदर्शन श्रेष्ठी का चरित वर्णित है, पर प्रसङ्गतः इसमें अन्यान्य विषयों का भी वर्णन किया गया है ।
अनेक काव्यों के श्रृङ्गार वर्णन में अश्लीलता द्दष्टिगोचर होती है, पर वह इसमें नहीं है।
साहित्य का संगीत के साथ-साथ चलना अत्यन्त आकर्षक होता है। प्रस्तुत कृति में अनेक रागरागिनी वाले पद्य भी हैं। यह विशेषता अन्य जैन वा जैनेतर काव्यों में भी प्रायः दुर्लभ है।
व्रतों में ब्रह्मचर्य का स्थान सर्वोपरि है। विकार के हेतुओं के उपस्थित होने पर भी सुदर्शन ब्रह्मचर्य से न डिगे। इनके जीवन-वृत्त को जो भी पढ़ेगा उसे सदाचारी बनने की प्रेरणा अवश्य मिलेगी।
हिन्दी अनुवाद अच्छा हुआ है। प्रस्तुत अनुवाद के बिना मूल काव्य को ठीक-ठीक समझना कठिन है। परिशिष्ट में मूल को खोलने वाले संस्कृत टिप्पण यदि दिये जाते, तो अधिक अच्छा होता ।
यह रचना सभी द्दष्टियों से श्लाध्य है और किसी भी परीक्षालय के शास्त्रि-कक्षा के पाठयक्रम में स्थान पाने योग्य है। दि. १९.११.६६
अमृतलाल जैन संस्कृत विश्वविद्यालय,
साहित्य-दर्शनाचार्य वाराणसी
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