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________________ काव्य कसौटी प्रस्तुत काव्य जयोदय महाकाव्य का अनुज है । फलतः इसमें भी अथ से इति तक उसी जैसी शाब्दी छटा द्दष्टि - गोचर होती है। इसका तुलनात्मक अध्ययन जो भी करेंगे उन्हें नैषध की स्मृति न हो यह संभव नहीं। उपलब्ध जैनेतर महाकाव्यों में नैषध की रचना सर्वोत्कृष्ट मानी जा रही है । इसलिये यह कहा जाता है कि 'नैषधं विद्वदोषधम् ' । जिस कथानक को पुराण और इतिहास प्रस्तुत करते हैं उसी को यदि एक प्रतिभाशाली कवि भी प्रस्तुत करता है तो वह उक्तिवैचित्र्य से प्रभावित हो कर उन दोनों से भिन्न ही दृष्टिगोचर होने लगता है। अलङ्कारों की सम्पुट उस में सरसता ला देती है और इसीलिए वह पाठक के मन को लुभा लेता है। इसी द्दष्टि से आचार्य वामन ने उसकी ग्राह्यता का प्रतिपादन किया है 'काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात् ' ( काव्यालङ्कार सूत्र १,१,१) अलङ्कारों के सन्निवेश ने प्रस्तुत काव्य की सुन्दरता को बढ़ा दिया है। इसका कुछ आभास निम्नलिखित श्लोकों से हो सकेगा : १,१ वीरप्रभुः स्वीयसुबुद्धिनावा भवाब्धितीरं 118 11 गमितप्रजावान्। सुधीवराराध्यगुणान्वयावाग् यस्यास्ति नः शास्ति कवित्वगावा १,२२ उद्योतयन्तोऽपि परार्थमन्तर्घोषा बहुबीहिमा लसन्तः । यतित्वमञ्चन्त्यविकल्पभावान् नृपा इवामी महिषीश्वरा वा ॥२॥ मधुपत्वमत्र । १,३३ पलाशिता किं शुक विरोधिता पञ्जर एव २,२ २,६ एव Jain Education International भाति द्विजह्वतातीत गुणोऽप्यहीनः विचार वानप्यविरुद्धवृत्तिर्मदोज्झितो दानमयप्रवृतिः कापीव वापी सरसा सुवृत्ता मुद्रेव शाटीव विधोः कला वा तिथिसत्कृतीद्धालङ्कारपूर्णा कवितेव पय आरात्स्तनयोस्तु शनकै : समितोऽपि तन्द्रिता स्म न शेते पुनरेष ३,३८ अहो किलाश्लेषि मनोरमायां त्वयाऽनुरूपेण ३,२६ द्रुतमाप्य रुदन्नथाम्बया पायितः । शायितः ॥६॥ मनोरमायाम् । जहासि मत्तोऽपि न किन्नु मायां चिदेति मेऽत्यर्थमकिन्तु मायाम् ॥७॥ ९, ५२ भाग्यतस्तमधीयानो विषयाननुयाति I चिन्तामणि क्षिपत्येष 11211 यहां क्रमशः (१) रुपक, यमक और अनुप्रास (२) पूर्णोपमा (३) परिसंख्या (४) विरोधाभास (५) श्लेषोपमा (६) स्वभावोक्ति (७) यमक और (८) निदर्शना अलङ्कारों का चमत्कार द्रष्टव्य है। " यत्र द्विरेफवर्गे निरौष्ठ्यकाव्येष्वपवादिता किलानको ऽप्येष पुनः यः काकड्डयन तवे For Private & Personal Use Only तु ॥३॥ प्रवीणः । ॥४॥ गुणैकसत्ता । सिद्धा ॥५॥ www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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