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है, विश्वलोचन कोष में 'पण्डः षण्ढे' शब्द पाया जाता है। ग्रन्थकार अपनी प्रायः सभी रचनाओं में इसी कोष-गत शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार लोग 'तल्प' शब्द के 'शय्या' अर्थ से ही परिचित हैं, पर यह शब्द स्त्री-वाचक भी है, यह इसी कोष से प्रमाणित है । इसलिए विद्वानों को यदि किसी खास शब्द के अर्थ में कुछ सन्देह प्रतीत हो, तो उसके अर्थ का निर्णय वे उक्त कोष से करें।
प्रस्तुत काव्य के निर्माता ने हमें बताया कि पंचम सर्ग के प्रारम्भ में जो प्रभाती दी गई है, उसके प्रथम चरण के 'अहो प्रभातो जातो भ्रातो' वाक्य में प्रभात शब्द के नपुंसकलिंग होते हुए भी 'भ्रातृ ' शब्द के पुल्लिंग होने के कारण एक सा अनुप्रास रखने के लिए उसे पुल्लिंग रूप से प्रयोग करना पड़ा है। इसी प्रकार अनुप्रास के सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर, उत्तर और मधुर आदि शब्दों के स्थान में क्रमशः सुन्दल, उत्तल और मधुल आदि शब्दों का प्रयोग किया गया हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में 'र' के स्थान में 'ल' और 'ल' के स्थान में 'र' का प्रयोग विधेय माना गया है।
सुदर्शनोदय की मूल रचना के साथ हिन्दी में भी विस्तृत व्याख्या मुनिश्री ने ही लिखी है। पर पुरानी शैली में लिखी होने के कारण मुनिश्री की आज्ञा से उसी के आधार पर यह नया अनुवाद मैंने किया है। अत्यन्त सावधानी रखने पर भी मूल श्लोकों के अति क्लिष्ट एवं गम्भीरार्थक होने से, तथा श्लिष्ट एवं द्वयर्थक शब्दों के प्रयोगों की बहुलता से तीन स्थलों पर अनुवाद में कुछ स्खलन रह गया है, जिसकी ओर मुनिश्री ने ही मेरा ध्यान आकृष्ट किया और उनके संकेतानुसार उन स्थलों का संशोधित अर्थ परिशिष्ट में दिया गया ।
यहां यह लिखते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है कि साहित्य मेरा प्रधान विषय नहीं है। फिर ऐसे कठिन काव्य का हिन्दी अनुवाद करना तो और भी कठिनतर कार्य है। तथापि हिन्दी अनुवाद में मूल के भाव को व्यक्त करने में जो कुछ भी थोड़ी बहुत सफलता मुझे मिली है, उसका सारा श्रेय मुनिश्री द्वारा लिखित हिन्दी व्याख्या को ही है। और कमी या त्रुटि रह गई है वह मेरी है। प्रूफ-संशोधन में सावधानी रखने पर भी प्रेस की असावधानी से अनेक अशुद्धियां रह गई है, जिनका संशोधन शुद्धिपत्र में किया गया है। पाठकों से निवेदन है कि वे ग्रन्थ का स्वाध्याय करने के पूर्व रह गई अशुद्धियों को शुद्ध करके पढ़ें।
लोगों की कथनी और करनी में बहुधा अन्तर देखा जाता है। लोकोक्ति है ' पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते जन न घनेरे।' पर मुनिश्री इसके अपवाद हैं। उन्होंने प्रस्तुत काव्य में गृहस्थ के लिए जिस धर्म का उपदेश दिया, उसे उन्होंने गृह-दशा में स्वयं पालन किया है। तथा जिस मुनि धर्म का उपदेश दिया, आज उसे वे स्वयं पालन कर रहे हैं।
सुदर्शनोदय के समान ही भगवान् महावीर के चरित का आश्रय लेकर आपने 'वीरोदय काव्य' की भी एक उत्तम रचना की है, जो हिन्दी अनुवाद के साथ बहुत शीघ्र पाठकों को कर-कमलों में पहुँचेगा। आपके द्वारा रचित जयोदय महाकाव्य एक बार मूलमात्र प्रकाशित हो चुका है। विद्वत्समाज ने उसका बहुत आदर किया और महाराज से उसकी संस्कृति टीका लिखने के लिए प्रेरणा की । महाराज ने उसके ४-५ कठिन सर्गों की संस्कृत टीका पहिले कर रखी थी। हमारी प्रार्थना पर पिछले दिनों आपने उसके शेष सर्गों की भी संस्कृत टीका लिख दी है। उसके हिन्दी अनुवाद के लिए भी प्रयत्न चालू है और हम आशा करते हैं कि वीरोदय के प्रकाशित होने के अनन्तर ही जयोदय महाकाव्य भी संस्कृत टीका और हिन्दी अनुवाद के साथ शीघ्र ही प्रकाशित होगा।
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