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भावार्थ - जो अपनी जीभ के स्वाद के लिए दूसरे जीव को मारकर उसका मांस खाते है, मनुष्य होकर के भी राक्षस हैं ॥५३॥
जीवो मृतिं न हि कदाप्युपयाति तत्त्वात्, प्राणाः प्रणाशमुपयान्ति यथेति कृत्वा। कर्ता प्रमाद्यति यतः प्रतिभाति हिंसा, पापं पुनर्विदधती जगते न किं सा ॥५४॥ यद्यपि तात्त्विक दृष्टि से जीव कभी भी मरण को नहीं प्राप्त होता है, तथापि मारने वाले पुरुष के द्वारा शरीर-संहार के साथ उसके द्रव्य प्राण विनाश को प्राप्त होते हैं और दूसरे के प्राणों का वियोग करते समय यतः हिंसक मनुष्य कषाय के आवेश होने के कारण प्रमाद-युक्त होता है, अत: उस समय हिंसा स्पष्ट प्रतिभासित होती है, फिर यह हिंसा जगत् के लिए क्या पाप को नहीं उत्पन्न करती है ॥५४॥
भावार्थ - यद्यपि चेतन आत्मा अमर है, तथापि शरीर के घात के साथ प्राणों का विनाश होता है। मरने वाले के शस्त्र घात जनित पीड़ा होती है और मारने वाले के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं, अत: द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा जहां पर हो, वहां पर पाप का बन्ध नियम से होगा।
अशनं तु भवेद् रे न नाम श्रोतमह ति। पिशितस्य दयाधीनमानसो ज्ञानवानसौ ॥५५॥
मांस के खाने की बात तो बहुत दूर है, ज्ञानवान् दयालु चित्तवाला मनुष्य तो मांस का नाम भी नहीं सुनना चाहता ॥५५॥
सन्धानं च नवनीतमगालितजलं सदा। पत्रशाकं च वर्षासु नाऽऽहर्तव्यं दयावता ॥५६॥
इसी प्रकार दयालु पुरुष को सर्व प्रकार के अचार, मुरब्बे, मक्खन, अगालित, जल और वर्षा ऋतु में पत्र वाले शाक भी नहीं खाना चाहिए क्योंकि इन सबके खाने में अपरिमित त्रस जीवों की हिंसा होती है ॥५६॥
फलं वटादेर्बहुजन्तुकन्तु दयालवो निश्यशनं त्यजन्तु। चर्मोपसृष्टं च रसोदकादि विचारभाजा विभुना न्यगादि ॥५७॥
दयालु जनों को बड़, पीपल, गूलर, अंजीर, पिलखन आदि अनेक जन्तु वाले फल नहीं खाना चाहिए। तथा उन्हें रात्रि में भोजन करने का त्याग भी करना चाहिए। चमड़े में रखे हुए तैल, घृत आदि रस वाले पदार्थ और जल आदि भी नहीं खाना-पीना चाहिए, ऐसा सर्व प्राणियों के कल्याण का विचार करने वाले सर्वज्ञ देव ने कहा है ॥५७।।
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