________________
-------------- 128 ----- होते हैं, तब उन पाँचों ही इन्द्रियों के पराधीन हुआ पुरुष कौन-कौन सी विपत्तियों को नहीं प्राप्त होगा, यह क्या कहा जाय ॥४७॥
ततो जितेन्द्रियत्वेन पापवृत्तिपरान्मुखः। सुखमालभतां चित्तधारकः परमात्मनि ॥४८॥
इसलिए पाप रूप प्रवृत्तियों से परान्मुख रहने वाला मनुष्य जितेन्द्रिय बनकर और परमात्मा में चित्त लगाकर सुख को प्राप्त करता हैं ॥४८॥
अहो मोहस्य माहात्म्यं जनोऽयं यद्वशङ्गतः । पश्यन्नपि न भूभागे तत्त्वार्थं प्रतिपद्यते ॥४९॥
अहो, यह मोह का ही माहात्म्य है कि जिसके वश हुआ यह जीव संसार में सत्यार्थ मार्ग को देखता हुआ भी उसे स्वीकार नहीं करता है और विपरीत मार्ग को स्वीकार कर दुःखों को भोगता है ॥४९॥
अङ्गेऽङ्गि भावमासाद्य मुहुरत्र विपद्यते। शैलूष इव रङ्गे ऽसौ न विश्रामं प्रपद्यते ॥५०॥
इस संसार में अज्ञ प्राणी शरीर में ही जीवपने की कल्पना करके बार-बार विपत्तियों को प्राप्त होता है। जैसे रगंभूमि पर अभिनय करने वाला अभिनेता नये-नये स्वांग धारण कर विश्राम को नहीं पाता है ॥५०॥
अनेक जन्मबहुत मर्त्य भावोऽतिदुर्लभः । खदिरादिसमाकीर्णे चन्दनद्रु मवद्वने ॥५१॥
अनेक प्रकार के जन्म और योनियों वाले इस संसार में मनुष्यपना अति दुर्लभ है, जैसे कि खैर, बबूल आदि अनेक वृक्षों से व्यास वन में चन्दन वृक्ष का मिलना अति कठिन है ॥५१॥
भाग्यतस्तमधीयानो विषयाननुयाति यः चिन्तामणिं क्षिपत्येष काकोडायनहे तवे ॥५२॥
भाग्य से ऐसे अति दुर्लभ मनुष्य भव को पा कर जो मनुष्य विषयों के पीछे दौड़ता है, वह ठीक उस पुरुष के सद्दश है, जो अति दुर्लभ चिन्तामणि रत्न को पाकर उसे काक उड़ाने के लिए फेंक देता है ॥५२॥
स्वार्थस्येयं पराकाष्ठा जिह्वालाम्पटयपुष्ट ये।
अन्यस्य जीवनमसौ संहरेन्मानवो भवन् ॥५३॥ स्वार्थ की यह चरम सीमा है कि अपने जिह्वा की लम्पटता को पुष्ट करने के लिए यह मानव हो करके भी अन्य प्राणी के जीवन का संहार करे और दानव बने।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org