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________________ - 105 के चारों ओर मंडरा रहा है। द्वारपालों, शीघ्र इधर आओ और इसे बाहिर निकालो। जैसे तीक्ष्ण किरणों वाला सूर्य चन्द्रमा की कान्ति-बिन्दु को खा डालता है, उसी प्रकार यह मेरी चन्द्र-तुल्य मुख-आभा को खाने के लिए उद्यत है, जैसे चमेली कांटो से विधकर दुर्दशा को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं भी इसके नख रूप कांटों से वेधी जा रही हूँ और अमृत की सरिता में विष के संयोग के समान इसका मेरे साथ यह कुसंयोग होने जा रहा है, सो हे द्वारपालो, शीघ्र इधर आओ और इसे अविलम्ब यहाँ से निकालो। इसके द्वारा हमारा चित्त अत्यन्त आकुल-व्याकुल हो रहा है ॥१-४|| राज्या इदं पूत्करणं निशम्य भटैरिहाऽऽगत्य धृतो द्रुतंयः । राज्ञोऽग्रतः प्रापित एवमेतैः किलाऽऽलपद्भिर्बहुशः समेतैः ॥३५॥ रानी की इस प्रकार करुण पुकार को सुनकर बहुत से सुभट लोग दौड़े हुए आये और सुदर्शन को पकड़ कर नाना प्रकार के अपशब्द कहते हुए वे लोग उसे राजा के आगे ले गये ॥३५॥ अहो धूर्तस्य धौर्यं निभालयताम् ॥स्थायी॥ हस्ते जपमाला हृदि हाला स्वार्थकृतोऽसौ वञ्चकता ॥१॥ अन्तो भोगभुगुपरि तु योगो बकवृत्तिर्वतिनो नियता ॥२॥ दर्पवतः सर्पस्येवास्य तु वक्र गतिः सहसाऽवगता ॥३॥ अघभूराष्ट्र कण्टकोऽयं खलु विपदे स्थितिरस्याभिमता ॥४॥ सुदर्शन को राजा के आगे खड़ाकर सुभट बोले - अहो, इस धूर्त की धूर्तता तो देखो - जो यह हाथ में तो जपमाला लिए है और हृदय में भारी हालाहल विष भरे हुए है। अपने स्थार्थ पूर्ति के लिए इसने कैसा वंचक पना (ठगपना) धारण कर रक्खा है? यह ऊपर से बगुले के समान योगी व्रती बन रहा है और अन्तरंग में इसके भोग भोगने की प्रबल लालसा उमड़ रही है। विष के दर्य से फूंकार करने वाले सर्प के समान इसकी कुटिल गति का आज सहसा पता चल गया है । यह पापी सारे राष्ट्र का कण्टक है। इसका जीवित रहना जगत् की विपत्ति के लिए है ॥१-४|| राजा जगाद न हि दर्शनमस्य मे स्या-देताद्दशीह परिणामवतोऽस्ति लेश्या। चाण्डाल एव स इमं लभतामिदानी, राज्ये ममेद्दगपि धिग्दुरितैकधानी ॥३६॥ सुभटों की बात सुनकर राजा बोला - मैं ऐसे पापी का मुख नहीं देखना चाहता । ओफ्, उपर से सभ्य दिखने वाले इस दुष्ट के परिणामों में ऐसी खोटी लेश्या है - दुर्भावना है ? अभी तुरन्त इसे चाण्डाल को सौंपो, वही इसकी खबर लेगा । मेरे राज्य में भी ऐसे पापी लोग बसते हैं ? मुझे आज ही ज्ञात हुआ है। ऐसे नीच पुरुष को धिक्कार है ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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