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________________ 96 जिनवाणी | 15,17 नवम्बर 2006|| उत्तर- प्रतिक्रमण करने से अहिंसा आदि व्रतों के दोष रूप छिद्रों का निरोध होता है। छिद्रों का निरोध होने पर आत्मा आस्रव का निरोध करता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन करता है। इस प्रकार वह आठ प्रवचन माता (पाँच समिति तथा तीन गुप्ति रूप संयम) में सावधान, अप्रमत्त तथा सुप्रणिहित होकर विचरण करता है। दिन-रात अविराम गति से जीवन की दौड़ धूप चल रही है। सावधानी रखते हुए भी मन, वाणी और कर्म में विभिन्नता आ जाती है। साधक गुरुदेव या भगवान् की साक्षी से अपनी भटकी हुई आत्मा को स्थिर करता है। भूलों को ध्यान में लाता है। मन, वाणी और कर्म के पश्चात्ताप की आग में डाल कर निखारता है, एक-एक भूल को निरीक्षण शक्ति से देखता है। देखकर स्वयं को जान लेता है और साधना के मार्ग में सुगति से निरन्तर आगे बढ़ता रहता है तथा अपने को शुद्ध बना लेता है। अपनी भूलों के प्रति प्रमाद साधक के लिये महापाप है। वह साधक ही क्या, जो अपने मन के कोनेकोने को सम्यक् रूप से टटोल कर स्वच्छ न करे। जैन धर्म का प्रतिक्रमण इसी सिद्धान्त पर आधारित है। स्वदोष दर्शन ही आगमिक भाषा में प्रतिक्रमण है। प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते रहने से साधक में अप्रमत्त भाव की स्फूर्ति बनी रहती है। प्रतिक्रमण के समय पवित्र भावना का प्रकाश मन के कोने-कोने में जगमगाने लगता है और समभाव का अमृत-प्रवाह अन्तर के मल को बहाकर साफ कर देता है। पाप हुए हों या न हुए हों, प्रतिक्रमण के समय सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान की साधना तो हो ही जाती है। यह साधना भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। यह ऐसी औषधि है, जिसका सेवन करने से रोग तो मिटेगा ही, पर भविष्य में भी उसका प्रभाव रहेगा। __ प्रतिक्रमण में 'मिच्छामि दुक्कडं' को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। ताकि साधक जागरूक रहे और अपने कर्तव्यों का पूर्ण रूप से पालन करता रहे। संक्षेप में कहें तो प्रतिक्रमण आत्मशोधन की सर्वश्रेष्ठ विधि है। मनुष्य जीवन के दैनिक क्रियाकलापों को करता हुआ, पापों से बचकर धर्म मार्ग पर अग्रसर होता रहे और अपनी आत्मा पर लगे हुए पाप कर्म की कालिख को शुद्ध करता हुआ परम पद की ओर अग्रसर हो, यही प्रतिक्रमण का लक्ष्य है। अनेकानेक भव्य आत्माओं ने अपनी आत्मा का शोधन करके अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त किया है। उसी प्रकार प्रत्येक साधक मनुष्य भव की महत्ता को समझकर परम पद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हो सकता है। संदर्भ ग्रन्थ १. आवश्यक नियुक्ति- आचार्य भद्रबाहु स्वामी २. पंच प्रतिक्रमण- पं. सुखलाल ३. आवश्यकसूत्रम्- पं. मुनि श्री कन्हैयालाल जी म.सा. ४. जिनवाणी- आगम विशेषांक ५. आवश्यक सूत्र- आचार्य हरिभद्र ६. आवश्यक सूत्र- पं. मुनि श्री अमोलक ऋषि जी म.सा. -संयोजक, श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान, सी-२६, देवनगर, टोंक रोड़, जयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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