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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
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(ब) भाव प्रतिक्रमण - अंतरंग उपयोग के साथ, लोक-परलोक की कामना से रहित, मात्र अपनी आत्मा को कर्म से विशुद्ध बनाने के लिए, जिनाज्ञानुसार किया जाने वाला प्रतिक्रमण 'भाव प्रतिक्रमण' कहलाता है। प्रमादवश जो पाप दोष लगे हैं, उन्हें अकरणीय समझ कर उन दोषों का वापस सेवन नहीं करने के लिये सजग रहना 'भाव प्रतिक्रमण' है ।
भाव-प्रतिक्रमण के बिना द्रव्य-प्रतिक्रमण से वास्तविक लाभ नहीं होता है। भाव प्रतिक्रमण से ही कर्म-निर्जरा एवं आत्मशुद्धि रूप वास्तविक फल की प्राप्ति होती है। अतः द्रव्य - प्रतिक्रमण से भाव - प्रतिक्रमण की ओर सदा अग्रसर होना चाहिये ।
द्रव्य प्रतिक्रमण के बिना भाव प्रतिक्रमण की प्राप्ति संभव नहीं है । द्रव्य प्रतिक्रमण वह उर्वरा भूमि है, जिसमें भाव प्रतिक्रमण का बीज आसानी से पुष्पित-फलित किया जा सकता है। प्रतिक्रमण कब ? - जब जिस समय अतिचार दोष का सेवन हुआ है अथवा जब उसका ज्ञान एवं भान हो जाये, उसी समय साधक को अन्तर्मन से “मिच्छामि दुक्कड” कहकर प्रतिक्रमण करना चाहिये । जितना शीघ्र हम प्रतिक्रमण करेंगे उतनी ही जल्दी हमारी आत्मा शुद्ध हो जायेगी।
हम जब तक प्रतिक्रमण नहीं करेंगे, हमारी आत्मा दूषित ही बनी रहेगी व उस दोष की अनुमोदना रूप पाप का बंध भी चलता रहेगा। जैनागम के अनुसार काल की अपेक्षा प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का है- १. दैवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक और ५. सांवत्सरिक ।
दिनभर में हुई भूलों को शाम को तथा रात-भर की भूलों को प्रातः ध्यान में लाकर प्रतिक्रमण करना आवश्यक है । जो भूलें प्रमादवश शेष रह जायें तो उन्हें पन्द्रह दिन (पक्ष) के अंत में ध्यान में लाकर पाक्षिक प्रतिक्रमण द्वारा आत्म-शोधन करना चाहिये। फिर भी कदाचित् भूलें रह जाये तो चातुर्मास के अन्त में ध्यान में लाकर प्रतिक्रमण करना चाहिये । कदाचित् फिर भी कुछ सूक्ष्म स्थूल भूलें रह जायें तो संवत्सर के अंत में सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण करके आत्म-शुद्धि करना अनिवार्य है ।
इस प्रकार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करके अपने पुराने खाते बराबर कर लें, कषायों को उपशांत कर लें, हृदय को सरल एवं विनम्र बनाकर सौम्यभाव की शीतल धारा में स्नान कर लें, यह प्रत्येक साधक के लिये अत्यावश्यक है।
जब प्रतिदिन प्रातः व सायं दोनों समय विधि सहित प्रतिक्रमण करने का विधान है तो फिर पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का विशेष विधान क्यों किया गया है?
हम जानते हैं कि मानव स्वभाव से विचित्र है । छद्मस्थ प्राणी होने के कारण जाने-अनजाने में भूल हो जाना स्वाभाविक है। कभी-कभी वह भूल करके भी तुरन्त उस पर पश्चात्ताप नहीं करता है। अहंकार में क्रोध की आग अंतर में धधकती रहती है और उसे शांत होने में कभी-कभी कुछ दिवस या माह तक लग जाते हैं। धीरे-धीरे जब मन शांत होता है, विरक्त होता है, तब मनुष्य को अपनी भूल का भान होता है, इसलिए उक्त पाँचों समयों में प्रतिक्रमण करने का विधान किया गया है।
हमें ऐसा भी नहीं सोचना चाहिये कि जब सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते हैं तो फिर शेष चार समयों में
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