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________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी भोजन का उद्देश्य क्या है? How much to eat वह कैसा व कितना हो? When to eat कब खायें ? How to eat कैसे खायें ? इस पर चिन्तन करना जरूरी है। शास्त्रकार समझाते हैं कि साधु का भोजन हितकारी हो, पथ्यकारी हो, अल्प मात्रा में हो, स्वास्थ्यवर्द्धक हो और जैन धर्म की मर्यादा के अनुकूल हो। साधु नवकोटि शुद्ध आहार ग्रहण करता है। सच्चा श्रमण ४२ दोष विवर्जित भोजन ग्रहण करता है। भगवती सूत्र के ७ वें शतक के प्रथम उद्देशक में भगवान् ने भिक्षा के ४ दोष बताए हैं- १. क्षेत्रातिक्रान्त- सूर्योदय पहले लेना व पहले खा लेना। यह नियम भोजन संयम के लिए है। २. कालातिक्रान्तप्रथम प्रहर का लिया चौथे प्रहर में भोगना। यह नियम संग्रहवृत्ति पर नियन्त्रण करने के लिए है। ३. मार्गातिक्रान्त- दो कोश उपरान्त ले जा कर खाना। यह नियम तृष्णा वृत्ति पर काबू रखने के लिए है। ४. प्रमाणातिक्रान्त- प्रमाण से अधिक खाना। जैसे पुरुष के ३२ ग्रास, स्त्री के २८ ग्रास, नपुंसक के २४ ग्रास से अधिक खाना। यह नियम रसों पर विजय मिलाने के लिए है। आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध, दूसरे अध्ययन, नवम उद्देशक में वर्णन है कि जैसा भी लूखासूखा भोजन मिले, साधु को शान्त भाव से बिल में सर्प प्रवेश करता है, वैसे ही खा लेना चाहिए। "ताक ताक जावे गोचरी लावे ताजा माल। संयम ऊपर चित्त नहीं, बन रयो कुन्दो लाल ।। ओ मार्ग नहीं साधु रो।।” दशवैकालिक सूत्र में भी कहा- साधु स्वाद का चटोरा न बने। स्वाद के लिए खाना अज्ञान दशा है। जीने के लिए खाना आवश्यकता है और संयम- साधना के लिए खाना साधना है। अगर वह स्वाद के लिए खाता है तो श्रमणत्व का शुद्धता से पालन नहीं करता है। जैसाकि ___“दूध दही विगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अरइ उ तवोकम्मे पावसमणेत्ति वुच्चई ।।" जो नित्य प्रति दूध, दही आदि विगयों का सेवन करता है तथा तप में अरुचि रखता है वह पापश्रमण कहलाता है। गृहस्थ के घर के किवाड़ बंद हैं तो उन्हें खोलकर आहार के लिए जाना अकल्पनीय है। देखें दशवकालिक ५वें अध्ययन की १८वीं गाथा। रास्ते में कुत्ते, बछड़े, बैल बैठे हों, उन्हें लांघकर या उन पर पैर रखकर गिरते-पड़ते आहार ले तो यह प्रवृत्ति सभ्यता-विरुद्ध व आगम-विरुद्ध लगती है। जीवों की विराधना भी होती है। कई घरों में भोजन बनने के बाद कुछ भोजन पुण्यार्थ निकाला जाता है। उसे अग्रपिंड कहते हैं इसका दूसरा नाम मण्डीप्रभृतिका है। ऐसा आहार साधु के लिए अग्राह्य है। देवता के लिए पूजार्थ तैयार किया हुआ भोजन बलि कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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