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________________ 70 | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 श्रमण जीवन की अनेकानेक विशेषताएँ हैं। उनमें एक विशेषता है कि भूल-भटक कर भी भूल न करना। अगर प्रमाद आदि दोषों से भूल हो जाय तो तत्काल संभलकर उस भूल का शुद्धीकरण कर लेना चाहिए। उस शुद्धीकरण का नाम जैनागम में आवश्यक एवं प्रतिक्रमण है। जो साधु-साध्वियों के द्वारा प्रतिदिन सायंकाल एवं प्रातःकाल अवश्य करने योग्य है, उसे श्रमण-आवश्यक कहते हैं। जैसे प्रतिलेखन, प्रमार्जन, वैय्यावृत्त्य, स्वाध्याय और ध्यान श्रमणों के नियत कर्म हैं वैसे ही श्रमणआवश्यक भी जरूरी है। आवश्यक कार्य तो बहुत होते हैं, जैसे शौचादि, स्नानादि, भोजन-पानादि, पर ये सब शारीरिक क्रियाएँ हैं। किन्तु यहाँ तो हम अन्तर्दृष्टि वाले साधकों के आवश्यक कर्म पर विचार कर रहे हैं। जिनसे कर्ममल एवं विकार हटाये जाते हैं, वे आवश्यक छः हैं - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान । श्रमण-आवश्यक के मुख्य पाँच पाठ हैं- १. शय्या सूत्र, २. गोचरचर्या सूत्र, ३. काल प्रतिलेखना सूत्र, ४. तैंतीस बोल और ५. प्रतिज्ञा सूत्र । श्रमण-आवश्यक के मुख्य पाठों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं१. शय्यासूत्र श्रमण-आवश्यक का प्रथम पाठ श्रमणों को शिक्षा देता है कि अधिक समय तक सोना, बार-बार करवट बदलना, बिना विवेक पसवाड़ा बदलना, बिना पूँजे हाथ पैर पसारना, जूं आदि प्राणियों का दबना, अयतना से शरीर को खुजलाना ये सब प्रवृत्तियाँ त्याज्य हैं। ये अतिचार हैं। साथ ही कुछ अतिचार निद्रित अवस्था में भी लगते हैं। स्वप्न में स्त्री-पुरुष को काम-राग भरी दृष्टि से देखना, स्वप्न में रात्रि-भोजन की इच्छा करना, युद्ध आदि देखकर भयभीत होना, ये दूषित प्रवृत्तियाँ हैं। इनके विषय में दोष लगा हो तो उसका मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है। एक करोड़पति सेठ पाई-पाई का हिसाब रखता था। एक पाई का भी हिसाब नहीं मिलने पर वह उसका कारण खोजता था, क्योंकि वह अर्थशास्त्र के नियम को जानता था कि “जल बिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।'' बूंद-बूंद से घट भर जाता है। इसी प्रकार अपनी एक-एक भूल का निवारण करने वाला साधक धर्म- साधना के क्षेत्र में उच्च कोटि को प्राप्त करता है। भूलों की उपेक्षा करने वाला पतन के गहरे गर्त में गिर पड़ता है। छोटी-बड़ी सभी भूलों के शुद्धीकरण हेतु प्रतिक्रमण की महती आवश्यकता है। सोते-जागते हुए शयन संबंधी कोई दोष लगा हो, मनवचन-काया से नियमों का उल्लंघन हो गया हो तो उस अतिक्रमण का प्रतिक्रमण कर पाप मुक्त बनना अनिवार्य है। २. गोचरचर्यासूत्र ___ जीवन को सुरक्षित बनाये रखने के लिए भोजन की आवश्यकता स्वीकृत है। आहार के बिना जीवन दीर्घावधि तक टिक नहीं पाता है और शरीर के बिना रत्नत्रय की साधना हो नहीं सकती। What to eat Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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