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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 391 २६. रत्नाधिक धर्मकथा करते हों तो बीच में ही टोकना- 'आप भूल गए। यह ऐसे नहीं, ऐसे है' इत्यादि । २७. रत्नाधिक धर्मकथा कर रहे हों, उस समय किसी उपाय से कथा भंग करना और स्वयं कथा कहने लगना । २८. रत्नाधिक धर्मकथा करते हों उस समय परिषद् का भेदन करना और कहना कि - 'कब तक कहोगे, भिक्षा का समय हो गया है।' २९. रत्नाधिक धर्मकथा कर चुके हों और जनता अभी बिखरी न हो तो उस सभा में गुरुदेव कथित धर्मकथा काही अन्य व्याख्यान करना और कहना कि 'इसके ये भाव और होते हैं।' ३०. गुरुदेव के शय्या - संस्तारक पर खड़े होना, बैठना और सोना । ३२. गुरुदेव के आसन से ऊँचे आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना । ३३. गुरुदेव के आसन के बराबर आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना । आशातनाएँ हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति के प्रतिक्रमणाध्ययन के अनुसार दी हैं । समवायांग और दशाश्रुतस्कंध सूत्र में भी कुछ क्रम भंग से ये ही आशातनाएँ हैं । - चरण सप्तति वय समणधम्म, संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तवं कोह- निग्गहाई चरणमेयं ॥ - ओघनियुक्ति भाष्य पाँच महाव्रत, क्षमा आदि दश श्रमण-धर्म, सतरह प्रकार का संयम, दश वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति, ज्ञान- दर्शन - चारित्ररूप तीन रत्न, बारह प्रकार का तप, चार कषायों का निग्रह- यह सत्तर प्रकार का चरण है। करण सप्तति पिंड विसोही समिई, भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु । ओघनियुक्ति भाष्य अशन आदि चार प्रकार की पिण्ड विशुद्धि, पाँच प्रकार की समिति, बारह प्रकार की भावना, बारह प्रकार की भिक्षु प्रतिमा, पाँच प्रकार का इन्द्रिय निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ और चार प्रकार का अभिग्रह- यह सत्तर प्रकार का करण है। जिसका नित्य प्रति निरंतर आचरण किया जाय, वह महाव्रत आदि चरण होता है और जो प्रयोजन होने पर किया जाय और प्रयोजन न होने पर न किया जाय, वह करण होता है । ओघनिर्युक्ति की टीका में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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